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"ज़माने वालो / उदयप्रताप सिंह" के अवतरणों में अंतर
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नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है । | नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है । | ||
− | + | तुम्हारी घड़ियाँ ग़लत हैं शायद, बजर सुबह का बजाने वालो ! | |
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मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों | मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों | ||
− | + | मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो ! | |
− | मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो | + | |
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तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो | तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो | ||
+ | इधर मैं रखता हूँ इस क़लम को समझते क्या हो खजाने वालो ! | ||
− | + | न जाने कितने समुद्र-मंथन का विष पिया है ख़ुशी से हमने | |
− | + | हमारी बोली में जो असर है यूँ ही नहीं है ज़माने वालो ! | |
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− | न जाने कितने समुद्र मंथन का विष पिया है | + | |
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+ | जहाँ में इन आँसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी | ||
+ | कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो ! | ||
नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी | नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी | ||
− | + | हमारी आँखों में ज़िंदगी है संभल के जलवा दिखाने वालो ! | |
− | हमारी आँखों में | + |
22:28, 17 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है ।
तुम्हारी घड़ियाँ ग़लत हैं शायद, बजर सुबह का बजाने वालो !
मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों
मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो !
तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो
इधर मैं रखता हूँ इस क़लम को समझते क्या हो खजाने वालो !
न जाने कितने समुद्र-मंथन का विष पिया है ख़ुशी से हमने
हमारी बोली में जो असर है यूँ ही नहीं है ज़माने वालो !
जहाँ में इन आँसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी
कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो !
नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी
हमारी आँखों में ज़िंदगी है संभल के जलवा दिखाने वालो !