Changes

ज़माने वालो / उदयप्रताप सिंह

109 bytes added, 16:58, 17 अक्टूबर 2010
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=उदयप्रताप सिंह
}}
{{KKCatGhazal‎}}‎
<poem>
नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है ।
 तुम्हारी घड़ियाँ गलत ग़लत हैं शायद, बजर सुबह का बजाने वालो !
मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों
 मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो !
तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो
इधर मैं रखता हूँ इस क़लम को समझते क्या हो खजाने वालो !
इधर मैं रखता हूँ इस कलम को समझते क्या हो खजाने वालो ।  न जाने कितने समुद्र -मंथन का विष पिया है खुशी ख़ुशी से हमने हमारी बोली में जो असर है यूँ ही नहीं है ज़माने वालो   जहाँ में इन आंसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो ।!
जहाँ में इन आँसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी
कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो !
नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी
 हमारी आँखों में जिंदगी ज़िंदगी है संभल के जलवा दिखाने वालो !
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
54,669
edits