{{KKCatKavita}}
<poem>लड़ गए
लड़ गए
बड़े-बूढ़े जवान गिरगिटान,
दूसरी क्रान्ति के प्रवर्तक कापालिक महान्,
हार-हार जाती हैं।
धैर्य के तट पर टिके
आराम फरमाते हैं थुरंधरी जहाज;
न पिंड छोड़ते हैं-
न मुँह मोड़ते हैं;
खड़े-खड़े वहीं कोयला खाते-
तेल पीते,
मालामाल हुए मौज मारते हैं,
ऐश्वर्थ की चिमनी से
भीतरी धुआँ बाहर उछालते हैं।
आकाश पीता है
सामने खड़े कारखाने का
चिमनी-छाप सिगार।
धूप का धोखा
शहर के सिर पर,
छाता ताने तना है।
रचनाकाल: आत्मलीन हैं दोनों,बलीन बादल और बिजलीसमाधिस्थ शिव कीउपासना में विसर्जित,चारों ओर चालू हैयंत्र और तंत्र का नियंत्रण।
चेतन चित्त
और चरित्र के चतुरानन,
भूँजी भाँग खाते
और पहाड़ फोड़कर आया
पानी पीते हैं,
मक्कर की दुनिया में
टक्कर खाए-बिना जीते हैं।
जब भी-जहाँ भी, कोई परदा
जरा-सा ऊपर उठा,
आदमियों के बजाय-
शैतानों का समूह वहाँ संसार को
लूटते-खसोटते दिखा।
समाज को जकड़े पड़े हैं
जबरजंग-
भभूतिया भूसुरों के चिमटे;
त्राहिमाम् त्राहिमाम् करता है आदमी
मुक्ति पाने के लिए।
खड़े हैं बड़ी बड़ी परिकल्पनाओं के
बड़े बड़े ऊँचे मूँगिया पहाड़;
पहाड़ों से
बहती चली जाती हैं
झमाझम पतित-पावन नदियाँ
अलौकिक उन्माद का
प्रवचन करतीं।
कीर्तन करते हैं
हम और हमारे वंशज,
देवी-देवताओं को
समर्पित किए तन और मन।
न आदमी बचता है-
न मसान बुझता है।
खनाखन बजाते हैं मन के मजीरे,
समय की साख को झनझनाते।
न देह को गरीबी छोड़ती है;
न ज्ञान की आँख को
अमीरी खोलती है।
हड़ताल में लगे लोग
सूखे हाड़ बजाते हैं
फिलहाल
खून के धारदार आँसू बहाते हैं।
बाजार में
सिर कटाए बिकते हैं
नमक-मिर्च और नींबू लगे खीरे।
पाँव के ठप्पे
मत-पत्र पर लगाए
गाँव के गरियार गोरू
बरियार बैताल को पीठ पर चढ़ाए
निर्द्वन्द्व पगुराते हैं;
दूसरों के सताए,
दूसरों के लिए मरे जाते हैं।
शहर की शोभा
शरीफजादे लूटते हैं,
देखते-देखते मानवीय मर्यादाओं को
पाँव के तले खूँदते हैं।
जब भी-जहाँ भी
कोई आग जली-
जमीन से जरा ऊपर लपक उठी,
हमने और हमारे हमदर्दों ने-
लपककर,
आग और लपक को
पाँव से कुचला
और दिवंगत बनाया।
यही है
इस देश का हाल,
लोकतंत्र में जिसे, मैंने,
सब जगह पिटते-
तड़पते-कराहते-
खून-खून होते देखा।
रचनाकाल: १३-०८-१९७८
</poem>