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कुछ फ़ैसला तो हो / परवीन शाकिर

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कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिये<br>
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये<br><br>
हर बार एड़ीयों एड़ियों पे गिरा है मेरा लहू<br>
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये<br><br>
सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर<br>
इल्ज़ाम ये भी चाँद चांद के सर जाना चाहिये<br><br>
जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही<br>
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले<br>
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये<br><br>
 
 
 
ब-तर्ज़-ए-दिगर= दूसरे आदमी की तरह; रख़्त-ए-सफ़र= सफ़र का सामान; अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम=घर की मुसीबत