भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रेत के समन्दर सी/ रमा द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार= रमा द्विवेदी
 
|रचनाकार= रमा द्विवेदी
 
}}  
 
}}  
रेत के समन्दर सी है यह ज़िन्दगी,<br>
+
<poem>
तूफ़ां अगर आ जाए बिखर जाए ज़िन्दगी।<br><br>
+
रेत के समन्दर सी है यह ज़िन्दगी,
 +
तूफ़ां अगर आ जाए बिखर जाए ज़िन्दगी।
 
   
 
   
अश्रु के झरने ने समन्दर बना दिया,<br>
+
अश्रु के झरने ने समन्दर बना दिया,
सागर किनारे प्यासी ही रह जाए ज़िन्दगी।<br><br>
+
सागर किनारे प्यासी ही रह जाए ज़िन्दगी।
 
   
 
   
जिन बेटियों को जन्म से पहले मिटा दिया<br>,
+
जिन बेटियों को जन्म से पहले मिटा दिया,
उन बेटियों को बार-बार लाए ज़िन्दगी।<br><br>
+
उन बेटियों को बार-बार लाए ज़िन्दगी।
 
   
 
   
पैरों की धूल मानकर इनको न रौंदना,<br>
+
पैरों की धूल मानकर इनको न रौंदना,
गिर जाए अगर आँख में रुलाए ज़िन्दगी।<br><br>
+
गिर जाए अगर आँख में रुलाए ज़िन्दगी।
 
   
 
   
चाहे बना लो रेत के कितने घरौंदे तुम,<br>
+
चाहे बना लो रेत के कितने घरौंदे तुम,
वक़्त के उबाल में ढ़ह जाए ज़िन्दगी।<br><br>
+
वक़्त के उबाल में ढ़ह जाए ज़िन्दगी।
 
   
 
   
जिनका वजूद रेत के तले दबा दिया,<br>
+
जिनका वजूद रेत के तले दबा दिया,
उनको ही चट्टान बनाए यह ज़िन्दगी।<br><br>
+
उनको ही चट्टान बनाए यह ज़िन्दगी।
 +
</poem>

10:05, 10 नवम्बर 2010 का अवतरण

{KKRachna |रचनाकार= रमा द्विवेदी }}

रेत के समन्दर सी है यह ज़िन्दगी,
तूफ़ां अगर आ जाए बिखर जाए ज़िन्दगी।
 
अश्रु के झरने ने समन्दर बना दिया,
सागर किनारे प्यासी ही रह जाए ज़िन्दगी।
 
जिन बेटियों को जन्म से पहले मिटा दिया,
उन बेटियों को बार-बार लाए ज़िन्दगी।
 
पैरों की धूल मानकर इनको न रौंदना,
गिर जाए अगर आँख में रुलाए ज़िन्दगी।
 
चाहे बना लो रेत के कितने घरौंदे तुम,
वक़्त के उबाल में ढ़ह जाए ज़िन्दगी।
 
जिनका वजूद रेत के तले दबा दिया,
उनको ही चट्टान बनाए यह ज़िन्दगी।