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मुअम्मा /जावेद अख़्तर

823 bytes added, 07:54, 12 नवम्बर 2010
<poem>
हम दोनों जो हर्फ़<ref> पहेलीअक्षर</ref> थेहम इक रोज मिले इक लफ्ज<ref> शब्द</ref>बना और हमने इक माने <ref> अर्थ</ref> पाए फिर जाने क्या हम पर गुजरी और अब यूँ है तुम इक हर्फ़ हो इक खाने मेंमैं इक हर्फ़ हूँ इक खाने मेबीच मे कितने लम्हों के खाने ख़ाली है फिर से कोई लफ्ज बने और हम दोनों इक माने पायें ऐसा हो सकता है लेकिनसोचना होगाइन ख़ाली खानों मे हमको भरना क्या है </poem>{{KKMeaning}}
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