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कल और आज / नागार्जुन
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06:19, 18 नवम्बर 2010
गोरैयों के झुंड,
अभी कल तक
पथराई हुई
थी
थी
धनहर खेतों की माटी,
अभी कल तक
और आज
ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं
तुम्हारे
तम्हारे
तंबू,
और आज
छमका रही है पावस रानी
और आज
आ गई वापस जान
दूब की झुलसी
शिरायों
शिराओं
के अंदर,और आज
बिदा
विदा
हुआ चुपचाप
ग्रीष्म
ग्रीष्म
समेटकर अपने लाव-
लश्कर।
लश्कर।
</poem>
अनिल जनविजय
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