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बाघिन / नागार्जुन

104 bytes removed, 06:25, 18 नवम्बर 2010
|संग्रह=खिचड़ी विप्लव देखा हमने / नागार्जुन
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लम्बी जिह्वा, मदमाते दृग झपक रहे हैं
 बूंद बूँद लहू के उन जबड़ों से टपक रहे हैं 
चबा चुकी है ताजे शिशुमुंडों को गिन-गिन
 
गुर्राती है, टीले पर बैठी है बाघिन
 पकड़ो, पकड़ो, अपना ही मुंह मुँह आप न नोचे! 
पगलाई है, जाने, अगले क्षण क्या सोचे!
 
इस बाघिन को रखेंगे हम चिड़ियाघर में
ऐसा जन्तु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन भर में!
ऎसा जन्तु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन भर में!  (१९७४ में रचित,'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' नामक संग्रह से )</poem>
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