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"इन्सान / रमानाथ अवस्थी" के अवतरणों में अंतर
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दीप की तरह जलो, तम हरो | दीप की तरह जलो, तम हरो | ||
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रात से कहने मन की बात, | रात से कहने मन की बात, | ||
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भूमि की सूनी डगर निहार, | भूमि की सूनी डगर निहार, | ||
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डूबने लगे नखत बेहाल | डूबने लगे नखत बेहाल | ||
उसी क्षण- | उसी क्षण- | ||
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− | + | चाँद की तरह, जलन तुम हरो | |
सदा इंसान। | सदा इंसान। | ||
− | + | साँस-सी दुर्बल लहरें देख, | |
पवन ने लिखा जलद को लेख, | पवन ने लिखा जलद को लेख, | ||
− | पपीहा की प्यासी | + | पपीहा की प्यासी आवाज़, |
हिलाने लगी इंद्र का राज, | हिलाने लगी इंद्र का राज, | ||
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बरसे झुक-झुक मेघ, किसी ने कहा- | बरसे झुक-झुक मेघ, किसी ने कहा- | ||
मेघ की तरह प्यास तुम हरो | मेघ की तरह प्यास तुम हरो | ||
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20:56, 21 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
मैंने तोड़ा फूल, किसी ने कहा-
फूल की तरह जियो औ मरो
सदा इंसान ।
भूलकर वसुधा का शृंगार,
सेज पर सोया जब संसार,
दीप कुछ कहे बिना ही जला-
रातभर तम पी-पीकर पला-
दीप को देख, भर गए नयन
उसी क्षण-
बुझा दिया जब दीप, किसी ने कहा
दीप की तरह जलो, तम हरो
सदा इंसान ।
रात से कहने मन की बात,
चँद्रमा जागा सारी रात,
भूमि की सूनी डगर निहार,
डाल आँसू चुपके दो-चार
डूबने लगे नखत बेहाल
उसी क्षण-
छिपा गगन में चाँद, किसी ने कहा-
चाँद की तरह, जलन तुम हरो
सदा इंसान।
साँस-सी दुर्बल लहरें देख,
पवन ने लिखा जलद को लेख,
पपीहा की प्यासी आवाज़,
हिलाने लगी इंद्र का राज,
धरा का कण्ठ सींचने हेतु
उसी क्षण -
बरसे झुक-झुक मेघ, किसी ने कहा-
मेघ की तरह प्यास तुम हरो
सदा इंसान ।