"अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 1 / भाग 3 / शैलेश ज़ैदी" के अवतरणों में अंतर
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+ | गंगा के आंचल में जन्मा मैं | ||
+ | पाकर विन्ध्यवासिनी का आशीर्वाद | ||
+ | जलाता हूँ मन के सूने कुटीर में | ||
+ | श्रद्धा के दीप | ||
+ | और यह अविरामयुक्त गंगा | ||
+ | सागर तक पहुँच कर | ||
+ | उछालती है दामन में मेरे | ||
+ | बहुमूल्य मोती से भरा एक सीप | ||
+ | दमक-दमक उठती है | ||
+ | सरयू के तट की तहों में दबी संस्कृति की | ||
+ | दीप्यमान छवियां | ||
+ | व्यक्त हो जाती हैं | ||
+ | अन्तर में मेरे सहज ही | ||
+ | धर्म, नीति और त्याग की त्रिमूर्तियॉं | ||
+ | ढीले पड़ जाते हैं सगुण और निर्गुण के बन्धन | ||
+ | रह जाता है अन्तर की परतों में | ||
+ | संस्कृति का सोधापन | ||
+ | और मैं इस सोंधेपन के भीतर देखता हॅू | ||
+ | अपने समूचे देश का एक नक्शा | ||
+ | मुझे लगता है | ||
+ | कि शायद नहीं पहचानता इस नक्शे की लकीरें | ||
+ | शायद नहीं भर पाता इस नक्षे में कोई रंग | ||
+ | राजनीति का बौनापन | ||
+ | असम में धधकती आग को ज़रूरत है | ||
+ | सरयू के जल की | ||
+ | और यह जल | ||
+ | केवल नदी का जल नहीं है | ||
+ | सांस्कृतिक धरोहर है | ||
+ | समूचे देश का | ||
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+ | धर्म, नीति और त्याग का गह्नर है | ||
+ | इसका विरोधी है जो भी | ||
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+ | विषधर है | ||
+ | सरयू की सुन्दर सुमंगल तरंगों के दर्पण में | ||
+ | आज भी झलकता है | ||
+ | राम, लक्ष्मण और सीता का विमल यश | ||
+ | जिससे टकराकर टूट जाते हैं सहज ही | ||
+ | कलिमल कलश | ||
+ | कलशों के भीतर विराजमान कैकेयी | ||
+ | करती है चीत्कार | ||
+ | लगता है घाव जब कर्कश | ||
+ | और वह जो भक्ति-पुंज गंगा है विराट | ||
+ | सात्विक है जिसका ललाट | ||
+ | ऑंचल में जिसके मैं जन्मा हूं-पला हूँ | ||
+ | समेट कर अन्तर में सरयू की संस्कृति | ||
+ | देती है उसको समुद्र का विस्तार | ||
+ | बन जाता है सहज ही विष्वव्यापी | ||
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14:38, 22 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
गंगा के आंचल में जन्मा मैं
पाकर विन्ध्यवासिनी का आशीर्वाद
जलाता हूँ मन के सूने कुटीर में
श्रद्धा के दीप
और यह अविरामयुक्त गंगा
सागर तक पहुँच कर
उछालती है दामन में मेरे
बहुमूल्य मोती से भरा एक सीप
दमक-दमक उठती है
सरयू के तट की तहों में दबी संस्कृति की
दीप्यमान छवियां
व्यक्त हो जाती हैं
अन्तर में मेरे सहज ही
धर्म, नीति और त्याग की त्रिमूर्तियॉं
ढीले पड़ जाते हैं सगुण और निर्गुण के बन्धन
रह जाता है अन्तर की परतों में
संस्कृति का सोधापन
और मैं इस सोंधेपन के भीतर देखता हॅू
अपने समूचे देश का एक नक्शा
मुझे लगता है
कि शायद नहीं पहचानता इस नक्शे की लकीरें
शायद नहीं भर पाता इस नक्षे में कोई रंग
राजनीति का बौनापन
असम में धधकती आग को ज़रूरत है
सरयू के जल की
और यह जल
केवल नदी का जल नहीं है
सांस्कृतिक धरोहर है
समूचे देश का
और यह समूचा देश
धर्म, नीति और त्याग का गह्नर है
इसका विरोधी है जो भी
विदेशी है
विषधर है
सरयू की सुन्दर सुमंगल तरंगों के दर्पण में
आज भी झलकता है
राम, लक्ष्मण और सीता का विमल यश
जिससे टकराकर टूट जाते हैं सहज ही
कलिमल कलश
कलशों के भीतर विराजमान कैकेयी
करती है चीत्कार
लगता है घाव जब कर्कश
और वह जो भक्ति-पुंज गंगा है विराट
सात्विक है जिसका ललाट
ऑंचल में जिसके मैं जन्मा हूं-पला हूँ
समेट कर अन्तर में सरयू की संस्कृति
देती है उसको समुद्र का विस्तार
बन जाता है सहज ही विष्वव्यापी
सानुज राम
और सीता का प्यार।
आधुनिक जीवन
शायद यह नहीं जानता
कि यह
प्यार ही भारत है