"मगर क्यूँ नज़्म लिक्खूँ / संजय कुमार कुंदन" के अवतरणों में अंतर
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+ | मुहब्बत की कोई इक नज़्म लिक्खूँ | ||
+ | किसी माशूक़ की जुल्फों के साए | ||
+ | लबों1 की नर्मियों की थरथराहट | ||
+ | लरज़ते काँपते क़दमों की आहट | ||
+ | किसी मासूम सीने में छुपी बेबाक धड़कन | ||
+ | कोई सहसा-सा कमरा, कोई वीरान आँगन | ||
+ | कहीं बाँहों में सिमटी कोई आग़ोश2 की हसरत | ||
+ | किसी एक ख़ास लम्हे में छुपी मासूम लज़्ज़त3 | ||
− | + | मगर क्यूँ नज़्म लिक्खूँ | |
− | + | कि नज़्में इस तरह लिक्खी नहीं जातीं | |
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− | + | किसी एक फूल पर बैठी हुई | |
− | + | तितली पकड़ने को | |
− | + | बढ़ा आता हो ख़ामोश क़दमों से | |
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− | + | मगर कोई नहीं आया | |
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+ | मैं खिड़की खोल कर | ||
+ | राहों पे कब से देखता हूँ | ||
+ | अजब सूखे से मौसम में | ||
+ | वही एक गुलमोहर का पेड़ | ||
+ | धूप की ज़द पर | ||
+ | सुर्ख़ फूलों को सहेजे | ||
+ | बहुत तनहा खड़ा है | ||
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1.होठों, 2.आलिंगन 3.आनंद 4.प्रतीक्षारत | 1.होठों, 2.आलिंगन 3.आनंद 4.प्रतीक्षारत |
23:41, 30 जुलाई 2012 के समय का अवतरण
अजब सी एक
बचकानी-सी ख़्वाहिश है
मुहब्बत की कोई इक नज़्म लिक्खूँ
किसी माशूक़ की जुल्फों के साए
लबों1 की नर्मियों की थरथराहट
लरज़ते काँपते क़दमों की आहट
किसी मासूम सीने में छुपी बेबाक धड़कन
कोई सहसा-सा कमरा, कोई वीरान आँगन
कहीं बाँहों में सिमटी कोई आग़ोश2 की हसरत
किसी एक ख़ास लम्हे में छुपी मासूम लज़्ज़त3
मगर क्यूँ नज़्म लिक्खूँ
कि नज़्में इस तरह लिक्खी नहीं जातीं
वो आती हैं दबे पाँवों, बहुत आहिस्ता
कि जैसे कोई बच्चा
दम साधे हुए
किसी एक फूल पर बैठी हुई
तितली पकड़ने को
बढ़ा आता हो ख़ामोश क़दमों से
इधर कितने महीनों से
ज़िन्दगी के सख़्त लम्हों को
दाँतों से पकड़े
थक गया हूँ
मुन्तज़िर4 हूँ उस मासूम बच्चे का
जो नाज़ुक उँगलियों से
पकड़ कर हौले-से मुझको
ज़िन्दगी के सख़्त लम्हों से
जुदा कर दे
परों पे हैं अगर कुछ रंग मेरे
उसे वो
चुटकियों में अपनी भर ले
मगर कोई नहीं आया
मगर कोई नहीं आया
मैं खिड़की खोल कर
राहों पे कब से देखता हूँ
अजब सूखे से मौसम में
वही एक गुलमोहर का पेड़
धूप की ज़द पर
सुर्ख़ फूलों को सहेजे
बहुत तनहा खड़ा है
1.होठों, 2.आलिंगन 3.आनंद 4.प्रतीक्षारत