अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिराज फ़ैसल ख़ान }} {{KKCatGhazal}} <poem> डूब गया मैँ यार कि…) |
छो () |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | डूब गया | + | डूब गया मैं यार किनारे पर वादों की कश्ती में |
− | और ज़माना कहता है कि डूबा हूँ | + | और ज़माना कहता है कि डूबा हूँ मैं मस्ती में । |
− | ठीक से पढ़ भी | + | ठीक से पढ़ भी नहीं सका और भीग गईं आँखें मेरी |
− | मीर को रख कर भेज दिया है ग़ालिब ने इक चिठ्ठी | + | मीर को रख कर भेज दिया है ग़ालिब ने इक चिठ्ठी में । |
− | हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस | + | हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई हैं |
− | सरकारी ऐलान हुआ है आज हमारी बस्ती | + | सरकारी ऐलान हुआ है आज हमारी बस्ती में । |
रोज़ कमीशन लग के वेतन बढ़ जाता है अफ़सर का | रोज़ कमीशन लग के वेतन बढ़ जाता है अफ़सर का | ||
− | और ग़रीबी पिसती जाती मंहगाई की चक्की | + | और ग़रीबी पिसती जाती मंहगाई की चक्की में । |
</poem> | </poem> |
17:41, 17 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
डूब गया मैं यार किनारे पर वादों की कश्ती में
और ज़माना कहता है कि डूबा हूँ मैं मस्ती में ।
ठीक से पढ़ भी नहीं सका और भीग गईं आँखें मेरी
मीर को रख कर भेज दिया है ग़ालिब ने इक चिठ्ठी में ।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई हैं
सरकारी ऐलान हुआ है आज हमारी बस्ती में ।
रोज़ कमीशन लग के वेतन बढ़ जाता है अफ़सर का
और ग़रीबी पिसती जाती मंहगाई की चक्की में ।