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गले से आके जो लगते रहे हैं सारी रात! | गले से आके जो लगते रहे हैं सारी रात! | ||
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जो बेजले ही सुलगते रहे हैं सारी रात | जो बेजले ही सुलगते रहे हैं सारी रात | ||
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कभी तो पायेंगे काग़ज़ गुलाब की रंगत | कभी तो पायेंगे काग़ज़ गुलाब की रंगत | ||
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02:16, 10 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
हम उनके प्यार में जगते रहे हैं सारी रात
ख़ुद अपने आप को ठगते रहे हैं सारी रात
ये क्या हुआ कि सुबह उनकी एक झलक न मिली,
गले से आके जो लगते रहे हैं सारी रात!
धधकके बुझ भी गए हों, हम उनसे अच्छे हैं
जो बेजले ही सुलगते रहे हैं सारी रात
हज़ार बार जिगर में समा चुके हैं, मगर
वे अजनबी से ही लगते रहे हैं सारी रात
कभी तो पायेंगे काग़ज़ गुलाब की रंगत
हम अपने ख़ून से रँगते रहे हैं सारी रात