Last modified on 30 मई 2012, at 11:40

"लगन लागी ना अन्तर पट में / शिवदीनराम जोशी" के अवतरणों में अंतर

 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=शिवदीन राम जोशी  
+
|रचनाकार=शिवदीन राम जोशी
|
+
|
+
 
}}
 
}}
<poem>                                                                                          लगन लागी ना अन्तर पट में।
+
<poem>                                                                                           
 +
लगन लागी ना अन्तर पट में।
 
दर्शन केहि विधी होय,  राम बैठे है तेरे घट में।
 
दर्शन केहि विधी होय,  राम बैठे है तेरे घट में।
 
तन की चोरी, मन की चोरी, करती रहती सुरता गोरी,
 
तन की चोरी, मन की चोरी, करती रहती सुरता गोरी,

11:40, 30 मई 2012 के समय का अवतरण

                                                                                          
लगन लागी ना अन्तर पट में।
दर्शन केहि विधी होय, राम बैठे है तेरे घट में।
तन की चोरी, मन की चोरी, करती रहती सुरता गोरी,
कैसे मिले, मिले वह सतगुरू, सुरता रहती हट में।
दिल तो खोल, बोल हरि मुख से, रहना चाहे जो तू सुख से,
कपट छांडिमन, मंत्र को रट रे, लगजा सुखमय तट में।
कहा करे गुरू ज्ञान बतावे, अपने शिष्य जनों को चावे,
शिष्य न समझे लगा हुआ वो, तोता की सी रट में।
कहे शिवदीन व्यर्थ दिन खोये, आलस में भर भर कर सोये,
गुरू चरणों में चित्त न देवे, पडा रहे सठ खट में।