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लूओं पर चढ घुमर घिरती धूलि रह रह हरहरा कर
 
चण्ड रवि के ताप से धरती धधकती आर्त्र होकर
 
प्रिय वियोग विदग्धमानस जो प्रवासी तप्त कातर
 
असह लगता है उन्हें यह यातना का ताप दुष्कर
 
प्रिये!आया ग्रीष्म खरतर!
 
 
 
 
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तीव्र आतपतप्त व्याकुल आर्त्त हो महती तृषा से
 
शुष्कतालू हरिण चंचल भागते हैं वेग धारे
 
वनांतर में तोय का आभास होता दूर क्षण भर
 
नील अन्जन सदृशनभ को वारि शंका में विगुर कर
 
प्रिये!आया ग्रीष्म खरतर!
 

19:01, 29 जनवरी 2008 के समय का अवतरण

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»  निशा मे सित हर्म्य में सुख नींद...

निशा में सित हर्म्य में सुख नींद में सोई सुघरवर

योषिताओं के बदन को बार-बार निहार कातर

चन्द्रमा चिर काल तक, फिर रात्रिक्षय में मलिन होकर

लाज में पाण्डुर हुआ-सा है विलम जाता चकित उर

प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !