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नील | नील | ||
− | + | गगन भेदती, | |
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धवल | धवल | ||
− | + | बादल-कुँहरे में धँसी, | |
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सत्य पर अर्ध सत्य, फिर अर्ध स्वप्न-सी खड़ी | सत्य पर अर्ध सत्य, फिर अर्ध स्वप्न-सी खड़ी | ||
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चोटियों का आमंत्रण- | चोटियों का आमंत्रण- | ||
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जैसे बंसी-टेर | जैसे बंसी-टेर | ||
− | + | कभी पुचकार, | |
− | + | कभी मनुहार, | |
− | + | कभी अधिकार | |
− | + | जनाती बुला रही है। | |
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यह हिरण! | यह हिरण! | ||
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चार चरणों पर | चार चरणों पर | ||
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विद्युत्-किरण | विद्युत्-किरण | ||
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धरा की धीरे-धीरे उठन, | धरा की धीरे-धीरे उठन, | ||
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क्षितिज पर पल-पल नव सिहरन। | क्षितिज पर पल-पल नव सिहरन। | ||
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हिरण का चाल | हिरण का चाल | ||
− | + | हवा से होड़, | |
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चौकड़ी से नपता भू-खंड | चौकड़ी से नपता भू-खंड | ||
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झारियाँ-झुरमुट-लता-वितान, | झारियाँ-झुरमुट-लता-वितान, | ||
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कुंज पर कुंज; | कुंज पर कुंज; | ||
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अभी, ले, इस चढ़व का ओर, | अभी, ले, इस चढ़व का ओर, | ||
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अभी, ले, उस उतार का छोर; | अभी, ले, उस उतार का छोर; | ||
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और अब निर्झर-शीतल तीर, | और अब निर्झर-शीतल तीर, | ||
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ध्वनित गिरि-चरणों में मंजीर, | ध्वनित गिरि-चरणों में मंजीर, | ||
− | + | स्फटिक-सा नीर, | |
− | + | तृषा कर शांत, | |
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भ्रांत, ऊपर से ही तो फूट | भ्रांत, ऊपर से ही तो फूट | ||
− | + | अमृत की धार बही है। | |
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यह घोड़ा! | यह घोड़ा! | ||
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जिस पर न सवारी | जिस पर न सवारी | ||
− | + | कभी किसी ने गाँठी, | |
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गाड़ी खिंचवाकर | गाड़ी खिंचवाकर | ||
− | + | नहीं गया जो तोड़ा, | |
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जो वन्य, पर्वती, उद्धृत, | जो वन्य, पर्वती, उद्धृत, | ||
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जिसको छू न सका है | जिसको छू न सका है | ||
− | + | कभी किसी का कोड़ा। | |
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− | + | ||
(यह अर्द्ध सत्य; | (यह अर्द्ध सत्य; | ||
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भीतर जो चलता उसे किसी ने देखा?) | भीतर जो चलता उसे किसी ने देखा?) | ||
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अब लेता श्रंग उठानें, | अब लेता श्रंग उठानें, | ||
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चट्टानों के ऊपर चढ़ती चट्टानें। | चट्टानों के ऊपर चढ़ती चट्टानें। | ||
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टापों के नीचे | टापों के नीचे | ||
− | + | वे टप-टप-टप करतीं | |
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ध्वनियाँ, प्रतिध्वनियाँ | ध्वनियाँ, प्रतिध्वनियाँ | ||
− | + | घाटी-घाटी भरतीं। | |
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वह ऊपर-ऊपर चढ़ा निरंतर जाता, | वह ऊपर-ऊपर चढ़ा निरंतर जाता, | ||
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वह कहीं नहीं क्षणभर को भी सुस्ताता | वह कहीं नहीं क्षणभर को भी सुस्ताता | ||
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ले, देवदारु बन आया; | ले, देवदारु बन आया; | ||
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सुखकर, श्रमहार | सुखकर, श्रमहार | ||
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होती है इसकी छाया। | होती है इसकी छाया। | ||
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हर चढ़नेवाला पाता ही है चोटी- | हर चढ़नेवाला पाता ही है चोटी- | ||
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पगले | पगले | ||
− | + | तुझसे किसने यह बात कहीं है? | |
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यह हाथी! | यह हाथी! | ||
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बाहर-भीतर यह कितना भरकम-भारी! | बाहर-भीतर यह कितना भरकम-भारी! | ||
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जैसे जीवन की की सब घडि़याँ, | जैसे जीवन की की सब घडि़याँ, | ||
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सब सुधियाँ, उपलब्धियाँ, | सब सुधियाँ, उपलब्धियाँ, | ||
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दु:ख-सुख, हार-जीत, | दु:ख-सुख, हार-जीत, | ||
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चिंता, शंकाएँ सारी, | चिंता, शंकाएँ सारी, | ||
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हो गई भार में परिवर्तित, | हो गई भार में परिवर्तित, | ||
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वृद्धावस्था की काया में, मन में संचित। | वृद्धावस्था की काया में, मन में संचित। | ||
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अब सीढ़ी-सीढ़ी खड़ी हुई हैं | अब सीढ़ी-सीढ़ी खड़ी हुई हैं | ||
− | + | हिम से ढँकी शिलाएँ | |
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अब शीत पवन के झकझोरे | अब शीत पवन के झकझोरे | ||
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लगते हैं आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, | लगते हैं आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, | ||
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अब धुंध-कुहासे में हैं | अब धुंध-कुहासे में हैं | ||
− | + | खोई-खोई हुई दिशाएँ। | |
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अब पथ टटोलकर चलना है, | अब पथ टटोलकर चलना है, | ||
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चलना तो, ऊपर चढ़ना है, | चलना तो, ऊपर चढ़ना है, | ||
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हर एक क़दम, | हर एक क़दम, | ||
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पर, ख़ूब संभलकर धरना है। | पर, ख़ूब संभलकर धरना है। | ||
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(सबसे भारी अंकुश होता है भार स्वयं) | (सबसे भारी अंकुश होता है भार स्वयं) | ||
− | |||
सब जगती देख रही है; | सब जगती देख रही है; | ||
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गजराज फिसलकर गिरा हुआ!- | गजराज फिसलकर गिरा हुआ!- | ||
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दुनिया का कोई दृश्य | दुनिया का कोई दृश्य | ||
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बंधु, इससे दयनीय नहीं है। | बंधु, इससे दयनीय नहीं है। | ||
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22:58, 28 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
नील
गगन भेदती,
धवल
बादल-कुँहरे में धँसी,
सत्य पर अर्ध सत्य, फिर अर्ध स्वप्न-सी खड़ी
चोटियों का आमंत्रण-
जैसे बंसी-टेर
कभी पुचकार,
कभी मनुहार,
कभी अधिकार
जनाती बुला रही है।
यह हिरण!
चार चरणों पर
विद्युत्-किरण
धरा की धीरे-धीरे उठन,
क्षितिज पर पल-पल नव सिहरन।
हिरण का चाल
हवा से होड़,
चौकड़ी से नपता भू-खंड
झारियाँ-झुरमुट-लता-वितान,
कुंज पर कुंज;
अभी, ले, इस चढ़व का ओर,
अभी, ले, उस उतार का छोर;
और अब निर्झर-शीतल तीर,
ध्वनित गिरि-चरणों में मंजीर,
स्फटिक-सा नीर,
तृषा कर शांत,
भ्रांत, ऊपर से ही तो फूट
अमृत की धार बही है।
यह घोड़ा!
जिस पर न सवारी
कभी किसी ने गाँठी,
गाड़ी खिंचवाकर
नहीं गया जो तोड़ा,
जो वन्य, पर्वती, उद्धृत,
जिसको छू न सका है
कभी किसी का कोड़ा।
(यह अर्द्ध सत्य;
भीतर जो चलता उसे किसी ने देखा?)
अब लेता श्रंग उठानें,
चट्टानों के ऊपर चढ़ती चट्टानें।
टापों के नीचे
वे टप-टप-टप करतीं
ध्वनियाँ, प्रतिध्वनियाँ
घाटी-घाटी भरतीं।
वह ऊपर-ऊपर चढ़ा निरंतर जाता,
वह कहीं नहीं क्षणभर को भी सुस्ताता
ले, देवदारु बन आया;
सुखकर, श्रमहार
होती है इसकी छाया।
हर चढ़नेवाला पाता ही है चोटी-
पगले
तुझसे किसने यह बात कहीं है?
यह हाथी!
बाहर-भीतर यह कितना भरकम-भारी!
जैसे जीवन की की सब घडि़याँ,
सब सुधियाँ, उपलब्धियाँ,
दु:ख-सुख, हार-जीत,
चिंता, शंकाएँ सारी,
हो गई भार में परिवर्तित,
वृद्धावस्था की काया में, मन में संचित।
अब सीढ़ी-सीढ़ी खड़ी हुई हैं
हिम से ढँकी शिलाएँ
अब शीत पवन के झकझोरे
लगते हैं आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ,
अब धुंध-कुहासे में हैं
खोई-खोई हुई दिशाएँ।
अब पथ टटोलकर चलना है,
चलना तो, ऊपर चढ़ना है,
हर एक क़दम,
पर, ख़ूब संभलकर धरना है।
(सबसे भारी अंकुश होता है भार स्वयं)
सब जगती देख रही है;
गजराज फिसलकर गिरा हुआ!-
दुनिया का कोई दृश्य
बंधु, इससे दयनीय नहीं है।