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{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
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|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
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<poem>
श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
<center><font size=1>श्रीगणेशायनमः</font></center><br><center><font size=1>श्रीजानकीवल्लभो विजयते</font></center><br><br><center><font size=6>श्रीरामचरितमानस</font></center><br><br><center><font size=4>सप्तम सोपान</font></center><br><br><center><font size=5>(उत्तरकाण्ड</font></center><br><br>) <span class="shloka">श्लोक<br>केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं<br>शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।<br>पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं<br>नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्।।1।।<br>पुष्पकारूढरामम्॥1॥कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।<br>जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ।।2।।<br>मनभृङ्गसड्गिनौ॥2॥कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।<br>कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्।।3।।<br>शंकरमनंगमोचनम्॥3॥दो0-रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।<br>जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग।।<br>बियोग॥<br>चौ0-सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।<br>प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर।।<br>फेर॥कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।<br>आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ।।<br>कोइ॥भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।<br>जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार।।<br>बिचार॥रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा।।<br>अपारा॥कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।<br>बिसरायउ॥अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।<br>अनुरागी॥कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।<br>लीन्हा॥जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।<br>कोरी॥जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।<br>सुभाऊ॥मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।।<br>होई॥बीतें अवधि रहहि जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना।।<br>समाना॥दो0-राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।<br>बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत।।1पोत॥1(क)।।<br>बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।<br>राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात।।1जलजात॥1(ख)।।<br><br>देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ।।<br>बरषेउ॥मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी।।<br>बानी॥जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती।।<br>पाँती॥रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता।।<br>त्राता॥रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।<br>आवत॥सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा।।<br>पियूषा॥को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।।<br>सुनाए॥मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना।।<br>कृपानिधाना॥दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर।।<br>सादर॥मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता।।<br>गाता॥कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते।।<br>पिरीते॥बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता।।<br>भ्राता॥एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।<br>नाहीं॥नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।<br>मोही॥तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा।।<br>गाथा॥कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।।<br>नाईं॥छं0-निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो।<br>सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो।।<br>यो॥रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।<br>काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो।।<br>सो॥दो0-राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।<br>पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात।।2समात॥2(क)।।<br>सो0-भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।<br>कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि।।2चढ़ि॥2(ख)।।<br><br>हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए।।<br>सुनाए॥पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई।।<br>रघुराई॥सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई।।<br>समुझाई॥समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए।।<br>धाए॥दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला।।<br>मूला॥भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी।।<br>सिंधुरगामिनी॥जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं।।<br>लावहिं॥एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई।।<br>रघुराई॥अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी।।<br>खानी॥बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा।।<br>नीरा॥दो0-हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।<br>चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत।।3कृपानिकेत॥3(क)।।<br>बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।<br>देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान।।3गान॥3(ख)।।<br>राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान।<br>बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान।।3समान॥3(ग)।।<br><br>इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर।।<br>मनोहर॥सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा।।<br>देसा॥जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना।।<br>जाना॥अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।<br>कोऊ॥जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।।<br>पावनि॥जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा।।<br>बासा॥अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी।।<br>रासी॥हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी।।<br>बखानी॥दो0-आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।<br>नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान।।4बिमान॥4(क)।।<br>उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।<br>प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु।।4ताहु॥4(ख)।।<br><br>आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा।।<br>बियोगा॥बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक।।<br>सायक॥धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह।।<br>तनोरुह॥भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया।।<br>दाया॥सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा।।<br>रघुकुलनाथा॥गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज।।<br>अज॥परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए।।<br>लाए॥स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े।।<br>बाढ़े॥छं0-राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।<br>अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी।।<br>धनी॥प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।<br>जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही।।1।।<br>लही॥1॥बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।<br>सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई।।<br>पावई॥अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।<br>बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो।।2।।<br>लियो॥2॥दो0-पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।<br>लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ।।5।।<br>भाइ॥5॥<br>भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे।।<br>मेटे॥सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा।।<br>पावा॥प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी।।<br>नासी॥प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।<br>खरारी॥अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।<br>कृपाला॥कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।<br>बिसोकी॥छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना।।<br>जाना॥एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा।।<br>धामा॥कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई।।<br>लवाई॥छं0-जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।<br>दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई।।<br>भई॥अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।<br>गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे।।<br>लहे॥दो0-भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।<br>रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि।।6सकुचानि॥6(क)।।<br>लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।<br>कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ।।6।।<br>जाइ॥6॥<br>सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही।।<br>तेही॥देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता।।<br>अहिवाता॥सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं।।<br>रोकहिं॥कनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं।।<br>निहारहिं॥नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं।।<br>भरहीं॥कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि।।<br>रनधीरहि॥हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा।।<br>मारा॥अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे।।<br>भारे॥दो0-लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।<br>परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु।।7।।<br>गातु॥7॥<br>लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला।।<br>सुभसीला॥हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा।।<br>सरीरा॥भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा।।<br>प्रेमा॥देखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती।।<br>प्रीती॥पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए।।<br>सिखाए॥गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे।।<br>मारे॥ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे।।<br>बेरे॥मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।<br>पिआरे॥सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए।।<br>नए॥दो0-कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।।<br>माथ॥आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ।।8रघुनाथ॥8(क)।।<br>सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।<br>चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद।।8बृंद॥8(ख)।।<br><br>कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।।<br>द्वारे॥बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।।<br>हेतू॥बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई।।<br>पुराई॥नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।।<br>बाजे॥जहँ तहँ नारि निछावर करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं।।<br>भरहीं॥कंचन थार आरती नाना। जुबती सजें करहिं सुभ गाना।।<br>गाना॥करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।।<br>कें॥पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना।।<br>बखाना॥तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं।।<br>कहहीं॥दो0-नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।<br>अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस।।9राकेस॥9(क)।।<br>होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान।<br>पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान।।9भगवान॥9(ख)।।<br><br>प्रभु जानी कैकेई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी।।<br>भवानी॥ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।<br>कीन्हा॥कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए।।<br>भए॥गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई।।<br>समुदाई॥सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन।।<br>सिंघासन॥मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए।।<br>भाए॥कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका।।<br>अभिषेका॥अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै।।<br>करीजै॥दो0-तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।<br>रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ।।10जाइ॥10(क)।।<br>जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।<br>हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ।।10आइ॥10(ख)।।<br> नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम<br><br>अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई।।<br>लाई॥राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई।।<br>जाई॥सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए।।<br>अन्हवाए॥पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे।।<br>निरुआरे॥अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई।।<br>रघुराई॥भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई।।<br>गाई॥पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए।।<br>नहाए॥करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे।।<br>लाजे॥दो0-सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।<br>दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ।।11बनाइ॥11(क)।।<br>राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।<br>देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि।।11जानि॥11(ख)।।<br>सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।<br>चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद।।11सुखकंद॥11(ग)।।<br><br>प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।<br>मागा॥रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।<br>नाई॥जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।।<br>समुदाई॥बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।<br>पुकारे॥प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।<br>दीन्हा॥सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।<br>उतारी॥बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे।।<br>कीन्हे॥सिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं।।<br>बजाईं॥छं0-नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।<br>नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।।<br>पावहीं॥भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।<br>गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते।।1।।<br>बिराजते॥1॥श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई।<br>नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।।<br>मोहई॥मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।<br>अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।।2।।<br>जे॥2॥दो0-वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।<br>बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस।।12महेस॥12(क)।।<br>भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।<br>बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।। श्रीराम॥ 12(ख)।।<br>प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।<br>लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान।।12गान॥12(ग)।।<br><br>छं0-जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने।<br>दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने।।<br>हने॥अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।<br>जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे।।1।।<br>नमामहे॥1॥तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।<br>भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे।।<br>भरे॥जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।<br>भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे।।2।।<br>नमामहे॥2॥जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।<br>ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी।।<br>हरी॥बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।<br>जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे।।3।।<br>समरामहे॥3॥जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।<br>नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी।।<br>सुरसरी॥ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।<br>पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे।।4।।<br>भजामहे॥4॥अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।<br>षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने।।<br>घने॥फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।<br>पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे।।5।।<br>नमामहे॥5॥जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।<br>ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।<br>गावहीं॥करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।<br>मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।6।।<br>अनुरागहीं॥6॥दो0-सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।<br>अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार।।13आगार॥13(क)।।<br>बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।<br>बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।13सरीर॥13(ख)।।<br><br>छं0- जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।<br>जनं॥अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।<br>प्रभो॥1॥दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।<br>रुजा॥रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।<br>दहे॥2॥महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।<br>बरं॥मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।<br>अनी॥3॥मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए।।<br>हिए॥हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।<br>परे॥4॥बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए।।<br>ए॥भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।<br>करते॥5॥अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं।।<br>नहीं॥अवलंब भवंत कथा जिन्ह के।। के॥ प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।<br>कें॥6॥नहिं राग न लोभ न मान मदा।।तिन्ह मदा॥तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा।।<br>बिपदा॥एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।<br>सदा॥7॥करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।<br>हिएँ॥सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।<br>मही॥8॥मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।।<br>अजे॥तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।<br>अरी॥9॥गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।<br>श्रीरमनं॥रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।<br>जनं॥10॥दो0-बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।<br>पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14सतसंग॥14(क)।।<br>बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।<br>तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास।।14बास॥14(ख)।।<br><br>सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी।।<br>दावनी॥महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका।।<br>बिबेका॥जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं।।<br>पावहिं॥सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं।।<br>जाहीं॥सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।<br>नई॥खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी।।<br>हरनी॥बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी।।<br>तरनी॥नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी।।<br>कुरी॥नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज।।<br>अज॥मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए।।<br>पाए॥दो0-ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।<br>जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति।।15।।<br>बीति॥15॥<br>बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही।।<br>माही॥तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए।।<br>नाए॥परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे।।<br>उचारे॥तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई।।<br>बड़ाई॥ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे।।<br>त्यागे॥अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही।।<br>सनेही॥सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना।।<br>बाना॥सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती।।<br>प्रीती॥दो0-अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।<br>सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।।16।।<br>प्रेम॥16॥<br>सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए।।<br>गए॥एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे।।<br>अनुरागे॥परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा।।<br>बिसेषा॥प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं।।<br>निहारहिं॥तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए।।<br>सुहाए॥सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए।।<br>बनाए॥प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए।।<br>भाए॥अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला।।<br>बोला॥दो0-जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।<br>हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।17माथ॥17(क)।।<br>तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।<br>अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि।।17बोरि॥17(ख)।।<br><br>सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो।।<br>बंधो॥मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली।।<br>घाली॥असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।<br>हितकारी॥मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।<br>जलजाता॥तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।<br>काहा॥बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।<br>दीना॥नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।<br>तरिहउँ॥अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।<br>जाही॥दो0-अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।<br>प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव।।18राजीव॥18(क)।।<br>निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।<br>बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ।।18समुझाइ॥18(ख)।।<br><br>भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता।।<br>चेता॥अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा।।<br>ओरा॥बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा।।<br>रामा॥राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी।।<br>मिलनी॥प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी।।<br>राखी॥अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए।।<br>आए॥तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना।।<br>हनुमाना॥दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा।।<br>देवा॥पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा।।<br>आगारा॥अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता।।<br>हनुमंता॥दो0-कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।<br>बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि।।19मोरि॥19(क)।।<br>अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।<br>तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत।।19भगवंत॥19(ख)।।<br>कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।<br>चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।।19काहि॥19(ग)।।<br><br>पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा।।<br>प्रसादा॥जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू।।<br>अनुसरेहू॥तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।।<br>जाता॥बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।<br>बारी॥चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा।।<br>सुनावा॥रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।<br>सुखरासी॥राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका।।<br>सोका॥बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई।।<br>खोई॥दो0-बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।<br>चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।20।।<br>रोग॥20॥<br>दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।<br>ब्यापा॥सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।<br>नीती॥चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं।।<br>नाहीं॥राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।।<br>अधिकारी॥अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।<br>सरीरा॥नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।<br>हीना॥सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।<br>गुनी॥सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।<br>सयानी॥दो0-राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।।<br>माहिं॥काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।21।।<br>नाहिं॥21॥<br>भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला।।<br>कोसला॥भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू।।<br>तासू॥सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी।।<br>घनेरी॥सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी।।<br>मानी॥सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला।।<br>दमसीला॥राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा।।<br>सारदा॥सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी।।<br>नारी॥एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।।<br>हितकारी॥दो0-दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।<br>जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज।।22।।<br>राज॥22॥<br>फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहि एक सँग गज पंचानन।।<br>पंचानन॥खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।<br>बढ़ाई॥कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।<br>अनंदा॥सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गूंजत अलि लै चलि मकरंदा।।<br>मकरंदा॥लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं।।<br>स्त्रवहीं॥ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी।।<br>करनी॥प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी।।<br>जानी॥सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।<br>सुखकारी॥सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।<br>लहहीं॥सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा।।<br>बिभागा॥दो0-बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।<br>मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज।।23।।<br>राज॥23॥<br>कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे।।<br>दीन्हे॥श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर।।<br>पुरंदर॥पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता।।<br>बिनीता॥जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई।।<br>लाई॥जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी।।<br>गुनी॥निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई।।<br>अनुसरई॥जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ।।<br>जानइ॥कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं।।<br>नाहीं॥उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततमनिंदिता।।<br>संततमनिंदिता॥दो0-जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।<br>राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ।।24।।<br>खोइ॥24॥<br>सेवहिं सानकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई।।<br>अधिकाई॥प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं।।<br>कहहीं॥राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती।।<br>नीती॥हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।।<br>भोगा॥अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं।।<br>चहहीं॥दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए।।<br>गाए॥दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर।।<br>सुंदर॥दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे।।<br>घनेरे॥दो0-ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।<br>सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार।।25।।<br>उदार॥25॥<br>प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन।।<br>सज्जन॥बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं।।<br>जानहिं॥अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं।।<br>भरहीं॥भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई।।<br>जाई॥बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा।।<br>अवगाहा॥सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं।।<br>कहावहिं॥सब कें गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना।।<br>नाना॥नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।।<br>जानहिं॥दो0-अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।<br>सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज।।26।।<br>बिराज॥26॥<br>नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा।।<br>कोसलाधीसा॥दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं।।<br>बिसरावहिं॥जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं।।<br>ढारीं॥पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर।।<br>बर॥नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई।।<br>आई॥महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा।।<br>नाचा॥धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत।।<br>निंदत॥बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं।।<br>बिराजहिं॥छं0-मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।<br>मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची।।<br>खची॥सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।<br>प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे।।<br>खचे॥दो0-चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।<br>राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ।।27।।<br>चोराइ॥27॥<br>सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई।।<br>बनाई॥लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बंसत कि नाई।।<br>नाई॥गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर।।<br>सुंदर॥नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए।।<br>सुहाए॥मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत।।<br>पावत॥जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं।।<br>कराहीं॥सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक।।<br>जनपालक॥राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रूचिर बजारू।।<br>बजारू॥छं0-बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।<br>जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए।।<br>गाइए॥बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।<br>सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे।।<br>जे॥दो0-उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।<br>बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।28।।<br>तीर॥28॥<br>दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।<br>ठाटा॥पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।।<br>अस्नाना॥राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।।<br>नर॥तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर।।<br>सुंदर॥कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी।।<br>संन्यासी॥तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।<br>लगाई॥पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई।।<br>रुचिराई॥देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा।।<br>तड़ागा॥छं0-बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।<br>सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं।।<br>मोहहीं॥बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।<br>आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।<br>हंकारहीं॥दो0-रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।<br>अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।29।।<br>छाइ॥29॥<br>जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं।।<br>सिखावहिं॥भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि।।<br>धामहि॥जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि।।<br>त्रातहि॥धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि।।<br>रनधीरहि॥काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि।।<br>जहि॥लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।<br>सुखदातहि॥संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि।।<br>कृसानुहि॥जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि।।<br>भीरहि॥बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि।।<br>अबिनासिहि॥मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि।।<br>उदारहि॥दो0-एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।<br>सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान।।30।।<br>कृपानिधान॥30॥<br>जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।<br>दिनेसा॥पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।।<br>सोका॥जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी।।<br>नसानी॥अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।<br>सकुचाने॥बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ।।<br>काऊ॥मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा।।<br>ओरा॥धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना।।<br>नाना॥सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका।।<br>अनेका॥दो0-यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।<br>पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास।।31।।<br>नास॥31॥<br>भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा।।<br>पवनकुमारा॥सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए।।<br>नए॥जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए।।<br>सुहाए॥ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना।।<br>बहुकालीना॥रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा।।<br>बिभेदा॥आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं।।<br>सुनहीं॥तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी।।<br>ग्यानी॥राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।।<br>अरनी॥दो0-देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।<br>स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।32।।<br>दीन्ह॥32॥<br>कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई।।<br>अधिकाई॥मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी।।<br>रोकी॥स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन।।<br>मोचन॥एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं।।<br>नवावहिं॥तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा।।<br>सरीरा॥कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे।।<br>उचारे॥आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।<br>खीसा॥बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।<br>भंगा॥दो0-संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।<br>कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ।।33।।<br>सदग्रंथ॥33॥<br>सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी।।<br>अनुसारी॥जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय।।<br>करुनामय॥जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर।।<br>नागर॥जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर।।<br>सोभाकर॥ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद।।<br>बद॥तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन।।<br>निरंजन॥सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय।।<br>परिपालय॥द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।।<br>गंजय॥दो0-परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।<br>प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।<br>श्रीराम॥34॥<br>देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि।।<br>नसावनि॥प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु।।<br>बरु॥भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक।।<br>दायक॥मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय।।<br>बिस्तारय॥आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक।।<br>बिस्तारक॥भूप मौलि मन मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी।।<br>तरनी॥मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर।।<br>संकर॥रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक।।<br>भच्छक॥तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन।।<br>भूषन॥दो0-बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।<br>ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ।।35।।<br>पाइ॥35॥<br>सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए।।<br>नाए॥पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं।।<br>पाहीं॥सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी।।<br>हानी॥अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना।।<br>हनुमाना॥जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता।।<br>भगवंता॥नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।<br>अहहीं॥तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ।।<br>काऊ॥सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना।।<br>हरना॥दो0-नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।<br>केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।।36।।<br>संदोह॥36॥<br>करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई।।<br>सुखदाई॥संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई।।<br>गाई॥श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई।।<br>अधिकाई॥सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन।।<br>बिचच्छन॥संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।।<br>बुझाई॥संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।<br>बिख्याता॥संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।<br>आचरनी॥काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई।।<br>बसाई॥दो0-ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।<br>अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड।।37।।<br>दंड॥37॥<br>बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।<br>पर॥सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।<br>त्यागी॥कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया।।<br>अमाया॥सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।<br>प्रानी॥बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।<br>मुदितायन॥सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।<br>जनयत्री॥ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।<br>फुर॥सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।<br>बोलहिं॥दो0-निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।<br>ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।<br>पुंज॥38॥<br>सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ।।<br>काऊ॥तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई।।<br>हरहाई॥खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी।।<br>देखी॥जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।।<br>पाई॥काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।।<br>मलायन॥बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।।<br>सों॥झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।<br>चबेना॥बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा।।<br>कठोरा॥दो0-पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।<br>ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।।39।।<br>मनुजाद॥39॥<br>लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न।।<br>न॥काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।।<br>आई॥जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती।।<br>नृपती॥स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।।<br>क्रोधी॥मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं।।<br>आनहिं॥करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।।<br>भावा॥अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी।।<br>स्वामी॥बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा।।<br>सुबेषा॥दो0-ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं।<br>द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।।40।।<br>माहिं॥40॥<br>पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।<br>अधमाई॥निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।<br>नर॥नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।।<br>भीरा॥करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।<br>नसाना॥कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता।।<br>दाता॥अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने।।<br>जाने॥त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक।।<br>नायक॥संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे।।<br>राखे॥दो0-सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।<br>गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।41।।<br>अबिबेक॥41॥<br>श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई।।<br>समाई॥करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा।।<br>अपारा॥पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए।।<br>नए॥बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं।।<br>गावहिं॥नित नव चरन देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं।।<br>कहाहीं॥सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।।<br>गानहिं॥सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।<br>आहहिं॥सुनि गुन गान समाधि बिसारी।। बिसारी॥ सादर सुनहिं परम अधिकारी।।<br>अधिकारी॥दो0-जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।<br>जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।।42।।<br>पाषान॥42॥<br>एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए।।<br>आए॥बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन।।<br>भंजन॥सनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी।।<br>आनी॥नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।<br>सोहाई॥सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।<br>जोई॥जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौं मोहि बरजहु भय बिसराई।।<br>बिसराई॥बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।।<br>गावा॥साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।<br>सँवारा॥दो0-सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।<br>कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ।।43।।<br>लगाइ॥43॥<br>एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।<br>दुखदाई॥नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।<br>लेहीं॥ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।<br>खोई॥आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।<br>अबिनासी॥फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।<br>घेरा॥कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।<br>सनेही॥नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।<br>मेरो॥करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।<br>पावा॥दो0-जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।<br>सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।।44।।<br>जाइ॥44॥<br>जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू।।<br>गहहू॥सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।<br>गाई॥ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका।।<br>टेका॥करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ।।<br>सोऊ॥भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।<br>प्रानी॥पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।<br>अंता॥पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।।<br>पूजा॥सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा।।<br>सेवा॥दो0-औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।<br>संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।45।।<br>मोरि॥45॥<br>कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।।<br>उपवासा॥सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।<br>सदाई॥मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा।।<br>बिस्वासा॥बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई।।<br>भाई॥बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा।।<br>आसा॥अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी।।<br>बिग्यानी॥प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा।।<br>अपबर्गा॥भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।<br>बहाई॥दो0-मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।<br>ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह।।46।।<br>संदोह॥46॥<br>सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के।।<br>के॥जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे।।<br>प्यारे॥तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी।।<br>हारी॥असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ।।<br>ओऊ॥हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।<br>असुरारी॥स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं।।<br>नाहीं॥सबके बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने।।<br>हरषाने॥निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई।।<br>सुहाई॥दो0–उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।<br>ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप।।47।।<br>भूप॥47॥<br>एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए।।<br>सुहाए॥अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा।।<br>लीन्हा॥राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी।।<br>मोरी॥देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा।।<br>अपारा॥महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना।।<br>भगवाना॥उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा।।<br>निंदा॥जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही।।<br>तोही॥परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा।।<br>भूपा॥दो0–तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।<br>जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन।।48।।<br>आन॥48॥<br>जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।।<br>कर्मा॥ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।<br>सज्जन॥आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।।<br>एका॥तब पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर।।<br>सुंदर॥छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ।।<br>बिलोएँ॥प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।<br>जाई॥सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित।।<br>अखंडित॥दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई।।<br>होई॥दो0-नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।<br>जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु।।49।।<br>नेहु॥49॥<br>अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए।।<br>भाए॥हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता।।<br>सुखदाता॥पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए।।<br>भए॥देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे।।<br>चाहे॥हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई।।<br>अवँराई॥भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई।।<br>भाई॥मारुतसुत तब मारूत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई।।<br>भरई॥हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी।।<br>अनुरागी॥गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई।।<br>गाई॥दो0-तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।<br>गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन।।50।।नबीन॥50॥<br><br/poem>