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"जड़ की मुसकान / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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एक दिन तूने भी कहा था,
 
एक दिन तूने भी कहा था,
 
 
जड़?
 
जड़?
 
 
जड़ तो जड़ ही है,
 
जड़ तो जड़ ही है,
 
 
जीवन से सदा डरी रही है,
 
जीवन से सदा डरी रही है,
 
 
और यही है उसका सारा इतिहास
 
और यही है उसका सारा इतिहास
 
 
कि ज़मीन में मुँह गड़ाए पड़ी रही है,
 
कि ज़मीन में मुँह गड़ाए पड़ी रही है,
 
 
लेकिल मैं ज़मीन से ऊपर उठा,
 
लेकिल मैं ज़मीन से ऊपर उठा,
 
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बाहर निकला,
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बढ़ा हूँ,
 
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मज़बूत बना हूँ,
::::बढ़ा हूँ,
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इसी से तो तना हूँ।
 
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:::इसी से तो तना हूँ।
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एक दिन डालों ने भी कहा था,
 
एक दिन डालों ने भी कहा था,
 
 
तना?
 
तना?
 
 
किस बात पर है तना?
 
किस बात पर है तना?
 
 
जहाँ बिठाल दिया गया था वहीं पर है बना।
 
जहाँ बिठाल दिया गया था वहीं पर है बना।
 
 
प्रगतिशील जगती में तील भर नहीं डोला है,
 
प्रगतिशील जगती में तील भर नहीं डोला है,
 
 
खाया है, मोटाया है, सहलाया चोला है;
 
खाया है, मोटाया है, सहलाया चोला है;
 
 
लेकिन हम तने में फूटीं,
 
लेकिन हम तने में फूटीं,
 
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दिशा-दिशा में गईं
:::दिशा-दिशा में गईं
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ऊपर उठीं,
 
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नीचे आईं
:::ऊपर उठीं,
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:::नीचे आईं
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हर हवा के लिए दोल बनी, लहराईं,
 
हर हवा के लिए दोल बनी, लहराईं,
 
 
इसी से तो डाल कहलाईं।
 
इसी से तो डाल कहलाईं।
 
  
 
एक दिन पत्तियों ने भी कहा था,
 
एक दिन पत्तियों ने भी कहा था,
 
 
डाल?
 
डाल?
 
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डाल में क्या है कमाल?
डाल में क्‍या है कमाल?
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माना वह झूमी, झुकी, डोली है
 
माना वह झूमी, झुकी, डोली है
 
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ध्वनि-प्रधान दुनिया में
:::ध्‍वनि-प्रधान दुनिया में
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एक शब्द भी वह कभी बोली है?
 
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लेकिन हम हर-हर स्वर करतीं हैं,
एक शब्‍द भी वह कभी बोली है?
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मर्मर स्वर मर्म भरा भरती हैं
 
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नूतन हर वर्ष हुई,
लेकिन हम हर-हर स्‍वर करतीं हैं,
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पतझर में झर
 
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बाहर-फूट फिर छहरती हैं,
मर्मर स्‍वर मर्म भरा भरती हैं
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:::नूतन हर वर्ष हुई,
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:::बाहर-फूट फिर छहराती हैं,
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विथकित चित पंथी का
 
विथकित चित पंथी का
 
 
शाप-ताप हरती हैं।
 
शाप-ताप हरती हैं।
 
  
 
एक दिन फूलों ने भी कहाँ था,
 
एक दिन फूलों ने भी कहाँ था,
 
 
पत्तियाँ?
 
पत्तियाँ?
 
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पत्तियों ने क्या किया?
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संख्या के बल पर बस डालों को छाप लिया,
 
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संख्‍या के बल पर बस डालों को छाप लिया,
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डालों के बल पर ही चल चपल रही हैं;
 
डालों के बल पर ही चल चपल रही हैं;
 
 
हवाओं के बल पर ही मचल रही हैं;
 
हवाओं के बल पर ही मचल रही हैं;
 
 
लेकिन हम अपने से खुले, खिले, फूले हैं-
 
लेकिन हम अपने से खुले, खिले, फूले हैं-
 
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रंग लिए, रस लिए, पराग लिए-
:::रंग लिए, रस लिए, पराग लिए-
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हमारी यक्ष-गंध दूर-दूर फैली है,
 
हमारी यक्ष-गंध दूर-दूर फैली है,
 
 
भ्रमरों ने आकर हमारे गुन गाए हैं,
 
भ्रमरों ने आकर हमारे गुन गाए हैं,
 
 
हम पर बौराए हैं।
 
हम पर बौराए हैं।
 
 
सबकी सुन पाई है,
 
सबकी सुन पाई है,
 
 
जड़ मुसकराई है!
 
जड़ मुसकराई है!
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22:21, 28 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

एक दिन तूने भी कहा था,
जड़?
जड़ तो जड़ ही है,
जीवन से सदा डरी रही है,
और यही है उसका सारा इतिहास
कि ज़मीन में मुँह गड़ाए पड़ी रही है,
लेकिल मैं ज़मीन से ऊपर उठा,
बाहर निकला,
बढ़ा हूँ,
मज़बूत बना हूँ,
इसी से तो तना हूँ।
एक दिन डालों ने भी कहा था,
तना?
किस बात पर है तना?
जहाँ बिठाल दिया गया था वहीं पर है बना।
प्रगतिशील जगती में तील भर नहीं डोला है,
खाया है, मोटाया है, सहलाया चोला है;
लेकिन हम तने में फूटीं,
दिशा-दिशा में गईं
ऊपर उठीं,
नीचे आईं
हर हवा के लिए दोल बनी, लहराईं,
इसी से तो डाल कहलाईं।

एक दिन पत्तियों ने भी कहा था,
डाल?
डाल में क्या है कमाल?
माना वह झूमी, झुकी, डोली है
ध्वनि-प्रधान दुनिया में
एक शब्द भी वह कभी बोली है?
लेकिन हम हर-हर स्वर करतीं हैं,
मर्मर स्वर मर्म भरा भरती हैं
नूतन हर वर्ष हुई,
पतझर में झर
बाहर-फूट फिर छहरती हैं,
विथकित चित पंथी का
शाप-ताप हरती हैं।

एक दिन फूलों ने भी कहाँ था,
पत्तियाँ?
पत्तियों ने क्या किया?
संख्या के बल पर बस डालों को छाप लिया,
डालों के बल पर ही चल चपल रही हैं;
हवाओं के बल पर ही मचल रही हैं;
लेकिन हम अपने से खुले, खिले, फूले हैं-
रंग लिए, रस लिए, पराग लिए-
हमारी यक्ष-गंध दूर-दूर फैली है,
भ्रमरों ने आकर हमारे गुन गाए हैं,
हम पर बौराए हैं।
सबकी सुन पाई है,
जड़ मुसकराई है!