"बारिश / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर
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+ | एक रात मैं घर लौटा जब बारिश थी पिता | ||
+ | इंतज़ार करते थे माँ व्याकुल थी बहनें दूर से एक साथ | ||
+ | दौड़ी चली आई थीं बारिश में हम सिमटकर | ||
+ | पास-पास बैठ गए हमने पुरानी तस्वीरें देखीं | ||
+ | जिन पर कालिख लगी थी शीशे टूटे थे बारिश | ||
+ | बार बार उन चेहरों को बहाकर ले जाती थी | ||
+ | बारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थी | ||
+ | पिता की बीमारी और माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थीं | ||
+ | हमने पुराने कमरों में झाँककर देखा दीवारें | ||
+ | साफ़ कीं जहाँ छत टपकती थी उसके नीचे बर्तन | ||
+ | रखे हमने धीमे धीमे बात की बारिश | ||
+ | हमारे हँसने और रोने को दबा देती थी | ||
+ | इतने घने बादलों के नीचे हम बार बार | ||
+ | प्रसन्न्ता के किसी किनारे तक जाकर लौट आते थे | ||
+ | बारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँच | ||
+ | चिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थी | ||
+ | कहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में । | ||
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+ | (1991) | ||
+ | </poem> |
15:56, 12 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण
खिड़की से अचानक बारिश आई
एक तेज़ बौछार ने मुझे बीच नींद से जगाया
दरवाज़े खटखटाए ख़ाली बर्तनों को बजाया
उसके फुर्तील्रे क़दम पूरे घर में फैल गए
वह काँपते हुए घर की नींव में धँसना चाहती थी
पुरानी तस्वीरों टूटे हुए छातों और बक्सों के भीतर
पहुँचना चाहती थी तहाए हुए कपड़ों को
बिखराना चाहती थी वह मेरे बचपन में बरसना
चाहती थी मुझे तरबतर करना चाहती थी
स्कूल जानेवाले रास्ते पर
बारिश में एक एक कर चेहरे भीगते थे
जो हमउम्र थे पता नहीं कहाँ तितरबितर हो गए थे
उनके नाम किसी और बारिश में पुँछ गए थे
भीगती हुई एक स्त्री आई जिसका चेहरा
बारिश की तरह था जिसके केशों में बारिश
छिपी होती थी जो फ़िर एक नदी बनकर
चली जाती थी इसी बारिश में एक दिन
मैं दूर तक भीगता हुआ गया इसी में कहीं लापता
हुआ भूल गया जो कुछ याद रखना था
इसी बारिश में कहीं रास्ता नहीं दिखाई दिया
इसी में बूढ़ा हुआ जीवन समाप्त होता हुआ दिखा
एक रात मैं घर लौटा जब बारिश थी पिता
इंतज़ार करते थे माँ व्याकुल थी बहनें दूर से एक साथ
दौड़ी चली आई थीं बारिश में हम सिमटकर
पास-पास बैठ गए हमने पुरानी तस्वीरें देखीं
जिन पर कालिख लगी थी शीशे टूटे थे बारिश
बार बार उन चेहरों को बहाकर ले जाती थी
बारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थी
पिता की बीमारी और माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थीं
हमने पुराने कमरों में झाँककर देखा दीवारें
साफ़ कीं जहाँ छत टपकती थी उसके नीचे बर्तन
रखे हमने धीमे धीमे बात की बारिश
हमारे हँसने और रोने को दबा देती थी
इतने घने बादलों के नीचे हम बार बार
प्रसन्न्ता के किसी किनारे तक जाकर लौट आते थे
बारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँच
चिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थी
कहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में ।
(1991)