"घर शान्त है / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर
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धूप दीवारों को धीरे धीरे गर्म कर रही है | धूप दीवारों को धीरे धीरे गर्म कर रही है | ||
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आसपास एक धीमी आँच है | आसपास एक धीमी आँच है | ||
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बिस्तर पर एक गेंद पड़ी है | बिस्तर पर एक गेंद पड़ी है | ||
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किताबें चुपचाप हैं | किताबें चुपचाप हैं | ||
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हालाँकि उनमें कई तरह की विपदाएँ बंद हैं | हालाँकि उनमें कई तरह की विपदाएँ बंद हैं | ||
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मैं अधजगा हूँ और अधसोया हूँ | मैं अधजगा हूँ और अधसोया हूँ | ||
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अधसोया हूँ और अधजागा हूँ | अधसोया हूँ और अधजागा हूँ | ||
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बाहर से आती आवाज़ों में | बाहर से आती आवाज़ों में | ||
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किसी के रोने की आवाज़ नहीं है | किसी के रोने की आवाज़ नहीं है | ||
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किसी के धमकाने या डरने की आवाज़ नहीं है | किसी के धमकाने या डरने की आवाज़ नहीं है | ||
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न कोई प्रार्थना कर रहा है | न कोई प्रार्थना कर रहा है | ||
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न कोई भीख माँग रहा है | न कोई भीख माँग रहा है | ||
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और मेरे भीतर ज़रा भी मैल नहीं है | और मेरे भीतर ज़रा भी मैल नहीं है | ||
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बल्कि एक ख़ाली जगह है | बल्कि एक ख़ाली जगह है | ||
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जहाँ कोई रह सकता है | जहाँ कोई रह सकता है | ||
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और मैं लाचार नहीं हूँ इस समय | और मैं लाचार नहीं हूँ इस समय | ||
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बल्कि भरा हुआ हूँ एक ज़रूरी वेदना से | बल्कि भरा हुआ हूँ एक ज़रूरी वेदना से | ||
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और मुझे याद आ रहा है बचपन का घर | और मुझे याद आ रहा है बचपन का घर | ||
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जिसके आँगन में औंधा पड़ा मैं | जिसके आँगन में औंधा पड़ा मैं | ||
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पीठ पर धूप सेंकता था | पीठ पर धूप सेंकता था | ||
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मैं दुनिया से कुछ नहीं माँग रहा हूँ | मैं दुनिया से कुछ नहीं माँग रहा हूँ | ||
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मैं जी सकता हूँ गिलहरी गेंद | मैं जी सकता हूँ गिलहरी गेंद | ||
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या घास जैसा कोई जीवन | या घास जैसा कोई जीवन | ||
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मुझे चिन्ता नहीं | मुझे चिन्ता नहीं | ||
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कब कोई झटका हिलाकर ढहा देगा | कब कोई झटका हिलाकर ढहा देगा | ||
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इस शान्त घर को । | इस शान्त घर को । | ||
− | + | '''रचनाकाल : 1990''' | |
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19:39, 11 मई 2010 के समय का अवतरण
धूप दीवारों को धीरे धीरे गर्म कर रही है
आसपास एक धीमी आँच है
बिस्तर पर एक गेंद पड़ी है
किताबें चुपचाप हैं
हालाँकि उनमें कई तरह की विपदाएँ बंद हैं
मैं अधजगा हूँ और अधसोया हूँ
अधसोया हूँ और अधजागा हूँ
बाहर से आती आवाज़ों में
किसी के रोने की आवाज़ नहीं है
किसी के धमकाने या डरने की आवाज़ नहीं है
न कोई प्रार्थना कर रहा है
न कोई भीख माँग रहा है
और मेरे भीतर ज़रा भी मैल नहीं है
बल्कि एक ख़ाली जगह है
जहाँ कोई रह सकता है
और मैं लाचार नहीं हूँ इस समय
बल्कि भरा हुआ हूँ एक ज़रूरी वेदना से
और मुझे याद आ रहा है बचपन का घर
जिसके आँगन में औंधा पड़ा मैं
पीठ पर धूप सेंकता था
मैं दुनिया से कुछ नहीं माँग रहा हूँ
मैं जी सकता हूँ गिलहरी गेंद
या घास जैसा कोई जीवन
मुझे चिन्ता नहीं
कब कोई झटका हिलाकर ढहा देगा
इस शान्त घर को ।
रचनाकाल : 1990