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+ | मर्मान्तक पीड़ा से | ||
+ | ऐंठता शरीर ठेल-ठेल , | ||
+ | ठहाके लगाते लोग ! | ||
+ | उन्मादग्रस्त भीड़ | ||
+ | अकेली औरत ! | ||
+ | * | ||
+ | बदहवास भागती है ! | ||
+ | जायेगी कहाँ ! | ||
+ | कहाँ जायगी, डायन ? | ||
+ | दर्दीली चीखों से रोमांचित-उत्त्तेजित | ||
+ | पत्थर फेंक-फेंक हुमस रहे लोग ! | ||
+ | प्राणान्तक यंत्रणायें देते | ||
+ | असह्य आनन्द से | ||
+ | किलकारियाँ मारते लोग ! | ||
+ | *** | ||
+ | कौन सी नई बात ! | ||
+ | सदियों से हर बरस | ||
+ | यही लीला देखने | ||
+ | इकट्ठा होते हैं -बड़े चाव से लोग ! | ||
+ | * | ||
+ | वही पुरानी कथा - | ||
+ | आती है एक नारी, | ||
+ | स्वयं -प्रार्थिता , | ||
+ | नारीत्व की सार्थकता हेतु , | ||
+ | पुरुष की कामना लिये ! | ||
+ | और शुरू होता है तमाशा ! | ||
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+ | प्रर्थिता को एक दूसरे के पास फेर रहे | ||
+ | कंदुक सा बार-बार ! | ||
+ | (पुरुष कहाँ अकेला , | ||
+ | सब साथ होते हैं उसके !) | ||
+ | हो गई विमूढ़ , हास्य-पात्र , | ||
+ | स्वयं-प्रार्थिता ! | ||
+ | और तिरस्कार की असह व्यथा ! | ||
+ | लोग रस विभोर ! | ||
+ | उठ रहा है रोर ! | ||
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+ | क्रोध -औ'विरोध ! | ||
+ | कटु वचनों के कशाघात ! | ||
+ | और फिर पौरुष का वार | ||
+ | अंग-भंग कर किया संपन्न महत्-कार्य ! | ||
+ | उठी जय कार ! | ||
+ | समवेत अट्टहास ! | ||
+ | मुख विवर्ण -विकृत ,लिखी पीड़ा अपार | ||
+ | ऐंठता-सा देह का आकार ! | ||
+ | * | ||
+ | ठहाके लगाते लोग ! | ||
+ | रक्त-धारायें बहाता तन , | ||
+ | घोर चीत्कार करती , | ||
+ | भागती है वह ! | ||
+ | आनन्द से हुलसते , | ||
+ | नाच उठते हैं लोग ! | ||
+ | * | ||
+ | सदियों से साल-दर साल | ||
+ | यही मनोरंजन होता आया है , | ||
+ | उत्सव यही देखने | ||
+ | अब भी तो आते हैं , | ||
+ | वीभत्स आनन्द के प्यासे लोग | ||
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08:46, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
आज फिर एक डायन ,
बाँसों से खदेड़-खदेड़ यातनायें दे ,
मौत के घाट उतार दी गई ।
इकट्ठे हुये थे लोग
यंत्रणाओं से तड़पती
नारी देह का मज़ा लेने !
खा गई पति को ,
राँड है !
जादू-टोना करती चाट जाती बच्चों को ,
नज़र लगा कर ,चौपट करदे जिसे चाहे ,
.काली जीभ के कुबोल इसी के !
अकेली नारी !
बेबस ,असहाय !
कौन सुने उसकी ?
कहीं , कोई नहीं !
कोंच रहे हैं अंग-प्रत्यंग,
जितना दारुण यातना ,
उतनी ऊँची किलकारियाँ !
ख़ून से लथपथ,
मर्मान्तक पीड़ा से
ऐंठता शरीर ठेल-ठेल ,
ठहाके लगाते लोग !
उन्मादग्रस्त भीड़
अकेली औरत !
बदहवास भागती है !
जायेगी कहाँ !
कहाँ जायगी, डायन ?
दर्दीली चीखों से रोमांचित-उत्त्तेजित
पत्थर फेंक-फेंक हुमस रहे लोग !
प्राणान्तक यंत्रणायें देते
असह्य आनन्द से
किलकारियाँ मारते लोग !
कौन सी नई बात !
सदियों से हर बरस
यही लीला देखने
इकट्ठा होते हैं -बड़े चाव से लोग !
वही पुरानी कथा -
आती है एक नारी,
स्वयं -प्रार्थिता ,
नारीत्व की सार्थकता हेतु ,
पुरुष की कामना लिये !
और शुरू होता है तमाशा !
प्रर्थिता को एक दूसरे के पास फेर रहे
कंदुक सा बार-बार !
(पुरुष कहाँ अकेला ,
सब साथ होते हैं उसके !)
हो गई विमूढ़ , हास्य-पात्र ,
स्वयं-प्रार्थिता !
और तिरस्कार की असह व्यथा !
लोग रस विभोर !
उठ रहा है रोर !
क्रोध -औ'विरोध !
कटु वचनों के कशाघात !
और फिर पौरुष का वार
अंग-भंग कर किया संपन्न महत्-कार्य !
उठी जय कार !
समवेत अट्टहास !
मुख विवर्ण -विकृत ,लिखी पीड़ा अपार
ऐंठता-सा देह का आकार !
ठहाके लगाते लोग !
रक्त-धारायें बहाता तन ,
घोर चीत्कार करती ,
भागती है वह !
आनन्द से हुलसते ,
नाच उठते हैं लोग !
सदियों से साल-दर साल
यही मनोरंजन होता आया है ,
उत्सव यही देखने
अब भी तो आते हैं ,
वीभत्स आनन्द के प्यासे लोग