Last modified on 12 सितम्बर 2018, at 15:37

"दोपहरी / शकुन्त माथुर" के अवतरणों में अंतर

 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=शकुन्त माथुर  
+
|रचनाकार=शकुन्त माथुर
}}{{KKAnthologyGarmi}}
+
|अनुवादक=
 +
|संग्रह=दूसरा सप्तक / शकुन्त माथुर
 +
}}
 +
{{KKAnthologyGarmi}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
पंक्ति 8: पंक्ति 11:
 
तपे हुए नभ के नीचे
 
तपे हुए नभ के नीचे
 
काली सड़कें तारकोल की
 
काली सड़कें तारकोल की
अंगारे-सी जली पड़ी थीं
+
अँगारे-सी जली पड़ी थीं
छांह जली थी पेड़ों की भी
+
छाँह जली थी पेड़ों की भी
 
पत्ते झुलस गए थे
 
पत्ते झुलस गए थे
नंगे-नंगे दीघर्काय, कंकालों से वृक्ष खड़े थे
+
नँगे-नँगे दीघर्काय, कँकालों से वृक्ष खड़े थे
 
हों अकाल के ज्यों अवतार
 
हों अकाल के ज्यों अवतार
  
एक अकेला तांगा था दूरी पर
+
एक अकेला ताँगा था दूरी पर
कोचवान की काली सी चाबूक के बल पर
+
कोचवान की काली सी चाबुक के बल पर
वह बढ़ता था
+
वो बढ़ता था
 
घूम-घूम ज्यों बलखाती थी सर्प सरीखी
 
घूम-घूम ज्यों बलखाती थी सर्प सरीखी
 
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गरम
 
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गरम
 
पीठ पर।
 
पीठ पर।
 
भाग रहा वह तारकोल की जली
 
भाग रहा वह तारकोल की जली
अंगीठी के उपर से।
+
अँगीठी के उपर से।
  
कभी एक ग्रामीण धरे कंधे पर लाठी
+
कभी एक ग्रामीण धरे कन्धे पर लाठी
 
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
 
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
 
लिए पीठ पर
 
लिए पीठ पर
 
भारी जूते फटे हुए
 
भारी जूते फटे हुए
जिन में से थी झांक रही गांव की आत्मा
+
जिन में से थी झाँक रही गाँवों की आत्मा
जि़ंदा रहने के कठिन जतन में
+
ज़िन्दा रहने के कठिन जतन में
पांव बढ़ाए आगे जाता।
+
पाँव बढ़ाए आगे जाता।
  
 
घर की खपरैलों के नीचे
 
घर की खपरैलों के नीचे
चिडि़यां भी दो-चार चोंच खोल
+
चिड़ियाँ भी दो-चार चोंच खोल
उड़ती छिपती थीं
+
उड़ती - छिपती थीं
खुले हुए आंगन में फैली
+
खुले हुए आँगन में फैली
 
कड़ी धूप से।
 
कड़ी धूप से।
  
 
बड़े घरों के श्वान पालतू
 
बड़े घरों के श्वान पालतू
बाथरूम में पानी की हल्की ठंड़क में
+
बाथरूम में पानी की हल्की ठण्डक में
नयन मूंद कर लेट गए थे।
+
नयन मून्द कर लेट गए थे।
  
 
कोई बाहर नहीं निकलता
 
कोई बाहर नहीं निकलता
सांझ समय तक
+
साँझ समय तक
थप्पड़ खाने गर्म् हवा के
+
थप्पड़ खाने गर्म हवा के
संध्या की भी चहल-पहल ओढ़े थी
+
सन्ध्या की भी चहल-पहल ओढ़े थी
गहरे सूने रंग की चादर
+
गहरे सूने रँग की चादर
 
गरमी के मौसम में।
 
गरमी के मौसम में।
 
</poem>
 
</poem>

15:37, 12 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

गरमी की दोपहरी में
तपे हुए नभ के नीचे
काली सड़कें तारकोल की
अँगारे-सी जली पड़ी थीं
छाँह जली थी पेड़ों की भी
पत्ते झुलस गए थे
नँगे-नँगे दीघर्काय, कँकालों से वृक्ष खड़े थे
हों अकाल के ज्यों अवतार

एक अकेला ताँगा था दूरी पर
कोचवान की काली सी चाबुक के बल पर
वो बढ़ता था
घूम-घूम ज्यों बलखाती थी सर्प सरीखी
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गरम
पीठ पर।
भाग रहा वह तारकोल की जली
अँगीठी के उपर से।

कभी एक ग्रामीण धरे कन्धे पर लाठी
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
लिए पीठ पर
भारी जूते फटे हुए
जिन में से थी झाँक रही गाँवों की आत्मा
ज़िन्दा रहने के कठिन जतन में
पाँव बढ़ाए आगे जाता।

घर की खपरैलों के नीचे
चिड़ियाँ भी दो-चार चोंच खोल
उड़ती - छिपती थीं
खुले हुए आँगन में फैली
कड़ी धूप से।

बड़े घरों के श्वान पालतू
बाथरूम में पानी की हल्की ठण्डक में
नयन मून्द कर लेट गए थे।

कोई बाहर नहीं निकलता
साँझ समय तक
थप्पड़ खाने गर्म हवा के
सन्ध्या की भी चहल-पहल ओढ़े थी
गहरे सूने रँग की चादर
गरमी के मौसम में।