भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"डुबकनी ( सानेट )/ ज़िया फ़तेहाबादी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी | ||
+ | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatNazm}} | ||
+ | <poem> | ||
:पस ए पर्दा किसी ने मेरे अरमानों की महफ़िल को | :पस ए पर्दा किसी ने मेरे अरमानों की महफ़िल को | ||
:कुछ इस अंदाज़ से देखा कुछ ऐसे तौर से देखा | :कुछ इस अंदाज़ से देखा कुछ ऐसे तौर से देखा | ||
:ग़ुबार ए आह से देकर जिला आइना ए दिल को | :ग़ुबार ए आह से देकर जिला आइना ए दिल को | ||
:हर इक सूरत को मैंने ख़ूब देखा गौर से देखा | :हर इक सूरत को मैंने ख़ूब देखा गौर से देखा | ||
− | नज़र आई न वो सूरत मुझे जिसकी तमन्ना थी | + | :नज़र आई न वो सूरत मुझे जिसकी तमन्ना थी |
− | बहुत ढूँढा किया गुलशन में वीराने में बस्ती में | + | :बहुत ढूँढा किया गुलशन में वीराने में बस्ती में |
− | मुन्नवर शमअ ए मेहर ओ माह से दिन रात दुनिया थी | + | :मुन्नवर शमअ ए मेहर ओ माह से दिन रात दुनिया थी |
− | मगर चारों तरफ़ था घुप अँधेरा मेरी हस्ती में | + | :मगर चारों तरफ़ था घुप अँधेरा मेरी हस्ती में |
− | दिल ए मजबूर को मजरूह ए उल्फ़त कर दिया किसने | + | :दिल ए मजबूर को मजरूह ए उल्फ़त कर दिया किसने |
− | मेरे अहसास की गहराईयों में है चुभन ग़म की | + | :मेरे अहसास की गहराईयों में है चुभन ग़म की |
− | मिटा कर जिस्म मेरी रूह को अपना लिया किसने | + | :मिटा कर जिस्म मेरी रूह को अपना लिया किसने |
− | जवानी बन गई आमाजगाह सदमात ए पैहम की | + | :जवानी बन गई आमाजगाह सदमात ए पैहम की |
− | हिजाबात ए नज़र का सिलसिला तोड़ और आ भी जा | + | :हिजाबात ए नज़र का सिलसिला तोड़ और आ भी जा |
− | मुझे इक बार अपना जलवा ए रंगीं दिखा भी जा | + | :मुझे इक बार अपना जलवा ए रंगीं दिखा भी जा |
+ | </poem> |
07:12, 7 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
पस ए पर्दा किसी ने मेरे अरमानों की महफ़िल को
कुछ इस अंदाज़ से देखा कुछ ऐसे तौर से देखा
ग़ुबार ए आह से देकर जिला आइना ए दिल को
हर इक सूरत को मैंने ख़ूब देखा गौर से देखा
नज़र आई न वो सूरत मुझे जिसकी तमन्ना थी
बहुत ढूँढा किया गुलशन में वीराने में बस्ती में
मुन्नवर शमअ ए मेहर ओ माह से दिन रात दुनिया थी
मगर चारों तरफ़ था घुप अँधेरा मेरी हस्ती में
दिल ए मजबूर को मजरूह ए उल्फ़त कर दिया किसने
मेरे अहसास की गहराईयों में है चुभन ग़म की
मिटा कर जिस्म मेरी रूह को अपना लिया किसने
जवानी बन गई आमाजगाह सदमात ए पैहम की
हिजाबात ए नज़र का सिलसिला तोड़ और आ भी जा
मुझे इक बार अपना जलवा ए रंगीं दिखा भी जा