अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
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− | चेतना पारीक कैसी हो ? | + | चेतना पारीक कैसी हो? |
− | पहले जैसी हो ? | + | पहले जैसी हो? |
− | कुछ-कुछ | + | कुछ-कुछ ख़ुुश |
कुछ-कुछ उदास | कुछ-कुछ उदास | ||
कभी देखती तारे | कभी देखती तारे | ||
कभी देखती घास | कभी देखती घास | ||
− | चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ? | + | चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? |
− | अब भी कविता लिखती हो ? | + | अब भी कविता लिखती हो? |
− | + | तुम्हें मेरी याद तो न होगी | |
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो | लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो | ||
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो | चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो | ||
− | तुम्हारी | + | तुम्हारी क़द-काठी की एक |
− | नन्ही-सी, नेक | + | नन्ही-सी, नेक |
सामने आ खड़ी है | सामने आ खड़ी है | ||
तुम्हारी याद उमड़ी है | तुम्हारी याद उमड़ी है | ||
− | चेतना पारीक, कैसी हो ? | + | चेतना पारीक, कैसी हो? |
− | पहले जैसी हो ? | + | पहले जैसी हो? |
− | आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ? | + | आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग? |
− | नाटक में अब भी लेती हो भाग ? | + | नाटक में अब भी लेती हो भाग? |
− | छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ? | + | छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर? |
− | मुझ-से | + | मुझ-से घुमन्तूू कवि से होती है टक्कर? |
− | अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ? | + | अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र? |
− | अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ? | + | अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र? |
− | अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ? | + | अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो? |
− | अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ? | + | अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो? |
− | चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ? | + | चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो? |
− | उतनी ही हरी हो ? | + | उतनी ही हरी हो? |
− | उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही | + | उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है |
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है | भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है | ||
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है | ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है | ||
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है | विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है | ||
− | इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह | + | इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है |
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है | एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है | ||
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है | महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है | ||
− | विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक | + | विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कण्ठ कम है |
− | तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह | + | तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ााली है |
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है | वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है | ||
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ | फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ | ||
− | आदमियों को | + | आदमियों को क़िताबों को निरखता लेखता हूँ |
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग | रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग | ||
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग | रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग | ||
पंक्ति 56: | पंक्ति 58: | ||
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है | देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है | ||
− | चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ? | + | चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो? |
− | बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ? | + | बोलो, बोलो, पहले जैसी हो? |
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23:37, 3 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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चेतना पारीक कैसी हो?
पहले जैसी हो?
कुछ-कुछ ख़ुुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?
अब भी कविता लिखती हो?
तुम्हें मेरी याद तो न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी क़द-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है
चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग?
नाटक में अब भी लेती हो भाग?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर?
मुझ-से घुमन्तूू कवि से होती है टक्कर?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो?
उतनी ही हरी हो?
उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है
इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कण्ठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ााली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को क़िताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है
चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो?