Last modified on 17 मई 2011, at 20:46

"जानकी -मंगल / तुलसीदास/ पृष्ठ 4" के अवतरणों में अंतर

(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=ज…)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=तुलसीदास
 
|रचनाकार=तुलसीदास
 +
|संग्रह=जानकी-मंगल / तुलसीदास / तुलसीदास
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
पंक्ति 15: पंक्ति 16:
 
'''( जानकी -मंगल पृष्ठ 4)'''
 
'''( जानकी -मंगल पृष्ठ 4)'''
  
'''स्वयंव'''  
+
'''विश्वामित्रजी की राम-भिक्षा'''
 +
 +
( छंद 17 से 24 तक)
 +
 +
कौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भई।
 +
सींचीं मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं।17।
 +
 
 +
रामहिं भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ।
 +
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ।18।
 +
 
 +
परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं।
 +
प्रेम पयोधि मगन मुनि न पावहिं।19।
 +
 
 +
मधुर मनोहर मूरति चाहहिं ।
 +
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं।20।
 +
 
 +
राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन।
 +
भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन। 21।
 +
 
 +
तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक।
 +
तेहिं तें बूझत काजु  डरौं मुनिदायक।22।
 +
 
 +
कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहिं।
 +
धर्मकथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहिं।23।
 +
 
 +
जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ।
 +
भयउ सनेह सत्य बस उतरू न आयउ।24।
 +
 
 +
 +
'''(छंद3)'''
 +
 
 +
आयउ न उतरू बसिष्ठ लखि बहु भाँति नृप समझायऊ।
 +
कहि गाधि सुत तप तेज कछु  रघुपति प्र्रभाउ जनायऊ।। 
  
 +
धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह कोसल धनी।।
 +
करूना निधान सुजान प्रभु सो उचित नहिं  बिनती घनी।3।
  
 
   
 
   
'''(इति पार्वती-मंगल पृष्ठ 4)'''
+
'''(इति जानकी -मंगल पृष्ठ 4)'''
  
 
</poem>
 
</poem>
 +
[[जानकी -मंगल /तुलसीदास/ पृष्ठ 5|अगला भाग >>]]

20:46, 17 मई 2011 के समय का अवतरण

।।श्रीहरि।।
    
( जानकी -मंगल पृष्ठ 4)

विश्वामित्रजी की राम-भिक्षा
 
( छंद 17 से 24 तक)
 
कौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भई।
सींचीं मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं।17।

 रामहिं भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ।
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ।18।

 परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं।
 प्रेम पयोधि मगन मुनि न पावहिं।19।

 मधुर मनोहर मूरति चाहहिं ।
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं।20।

राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन।
 भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन। 21।

तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक।
 तेहिं तें बूझत काजु डरौं मुनिदायक।22।

कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहिं।
धर्मकथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहिं।23।

 जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ।
भयउ सनेह सत्य बस उतरू न आयउ।24।

 
(छंद3)

आयउ न उतरू बसिष्ठ लखि बहु भाँति नृप समझायऊ।
कहि गाधि सुत तप तेज कछु रघुपति प्र्रभाउ जनायऊ।।

धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह कोसल धनी।।
करूना निधान सुजान प्रभु सो उचित नहिं बिनती घनी।3।

 
(इति जानकी -मंगल पृष्ठ 4)

अगला भाग >>