भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"वृक्ष हूं इसलिये/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sheelendra (चर्चा | योगदान) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 20: | पंक्ति 20: | ||
थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में | थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में | ||
लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी, | लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी, | ||
− | + | जानकी के सुभग देश में किस तरह | |
− | घट रही | + | घट रही हैं अशुभ यह नयी त्रासदी, |
स्वर सुनायी नहीं दे रहे रोष के, | स्वर सुनायी नहीं दे रहे रोष के, | ||
पंक्ति 27: | पंक्ति 27: | ||
घेर कर मार डाला गया छांव में | घेर कर मार डाला गया छांव में | ||
− | एक अभिमन्यु मेरी नजर | + | एक अभिमन्यु मेरी नजर सामने, |
रक्त से भीगते रह गये वक्त के | रक्त से भीगते रह गये वक्त के | ||
कांपते पल घृणा की हदें नापते, | कांपते पल घृणा की हदें नापते, |
22:31, 5 मार्च 2012 के समय का अवतरण
वृक्ष हूं इसलिये
वृक्ष हूं इसलिये जानता सत्य हूं,
घुल गया आज कितना हवा में जहर।
लूटते मित्र को पा अंधेरा घना
बैठ सुनते उजाले उसी से व्यथा,
राम का राज्य बनना इसे था मगर
रावणों की यहा पल रही है कथा,
देखकर सोचता हूं ,लुटे मित्र को,
मच गया आज कितना यहां पर कहर।
थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में
लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी,
जानकी के सुभग देश में किस तरह
घट रही हैं अशुभ यह नयी त्रासदी,
स्वर सुनायी नहीं दे रहे रोष के,
सो गया आज कितना हमारा शहर।
घेर कर मार डाला गया छांव में
एक अभिमन्यु मेरी नजर सामने,
रक्त से भीगते रह गये वक्त के
कांपते पल घृणा की हदें नापते,
फट गया है हृदय दर्द से रात का,
रह गया आज कितना ठगा हर पहर।