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− | + | सन् [[1935]] में वर्तमान पाकिस्तान के छावनी नौशेहरा नामक स्थान में जन्म लेने वाली राजी सेठ ने अंग्रेजी साहित्य से एम0ए0 करने के उपरांत तुलनात्मक धर्म और भारतीय दर्शन मे विशेष अध्ययन किया। इन्होंने लेखन की शुरूआत सन् [[1974]] में काफी विलंब से की। अपने सक्रिय लेखन की शुरूआत के संबंध मे वर्ष [[1998]] में एक साहित्यिक पत्रिका ‘वागर्थ’ में अपने एक लेख में इस प्रकार लिखा हैः- | |
‘‘ ----फिलहाल तो इतना कि -------इनमें एक निरन्तरता है इस बात को स्पष्ट कर देना इसलिये जरूरी है कि जब लिखना शुरू किया था ( लिखना मैने देर से शुरू किया , जीवन के उत्तरार्र्द्ध में ) तो मन पर चयन धर्मिता का खासा दबाव पडता था लगता था रचनाकार को सदा अपना श्रेष्ठतम् ही प्रस्तुत करना चाहिये। इस मानसिकता के चलते अपने पहले कहानी संग्रह ‘अंधे मोड से आगे’ की भूमिका में यह भी लिख दिया था कि धरती पर जो कदम वजनदार पडते हैं वही अपना निशान छोडते हैं। | ‘‘ ----फिलहाल तो इतना कि -------इनमें एक निरन्तरता है इस बात को स्पष्ट कर देना इसलिये जरूरी है कि जब लिखना शुरू किया था ( लिखना मैने देर से शुरू किया , जीवन के उत्तरार्र्द्ध में ) तो मन पर चयन धर्मिता का खासा दबाव पडता था लगता था रचनाकार को सदा अपना श्रेष्ठतम् ही प्रस्तुत करना चाहिये। इस मानसिकता के चलते अपने पहले कहानी संग्रह ‘अंधे मोड से आगे’ की भूमिका में यह भी लिख दिया था कि धरती पर जो कदम वजनदार पडते हैं वही अपना निशान छोडते हैं। | ||
ज्यों ज्यों समय बीतता गया उस सोच और संकल्प में दरार आती गयी। लगा जीवन में अच्छा-बुरा, ऊंच-नीच, सफल -असफल दोनों हैं। यदि सदा ही वजनदार कदमों की बात होती रही तो अपनी यात्रा अपने आपको भी कभी नहीं दीखेगी। अनुभव के प्रत्यक्षीकरण का कोई वस्तुपरक पैमाना बन ही नहीं पाएगा जो अपने आप में एक बहुत बडी सीख है। -----’’ | ज्यों ज्यों समय बीतता गया उस सोच और संकल्प में दरार आती गयी। लगा जीवन में अच्छा-बुरा, ऊंच-नीच, सफल -असफल दोनों हैं। यदि सदा ही वजनदार कदमों की बात होती रही तो अपनी यात्रा अपने आपको भी कभी नहीं दीखेगी। अनुभव के प्रत्यक्षीकरण का कोई वस्तुपरक पैमाना बन ही नहीं पाएगा जो अपने आप में एक बहुत बडी सीख है। -----’’ | ||
− | + | इनकी रचनाओं में ‘मृत्यु’ बार-बार केन्द्रीय विषय बनकर उभरती रही है। साहित्यिक पत्रिका ’हंस‘ द्वारा प्रायोजित श्रंखला ‘आत्म-तर्पण’ में हिस्सा लेने के दौरान लेखिका ने अनेक अवसरों पर इस तथ्य को रेखांकित भी किया हैः- | |
‘‘मृत्यु औचक आती है और कुुछ न भी करे तो संवेदनशून्य और परिपक्व (?) तो करती ही करती है। यह अजीब बात है कि मृत्यु से निबटने की समझ मृत्यु के घटित में से ही आती है। रचना की शब्दावली में यह अनुभव की कीमत है। ’’ | ‘‘मृत्यु औचक आती है और कुुछ न भी करे तो संवेदनशून्य और परिपक्व (?) तो करती ही करती है। यह अजीब बात है कि मृत्यु से निबटने की समझ मृत्यु के घटित में से ही आती है। रचना की शब्दावली में यह अनुभव की कीमत है। ’’ | ||
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 2004 में प्रकाशित एक संग्रह की भूमिका में लेखिका ने इस केन्द्रीय विषय के सम्बन्ध में अपना स्पष्टीकरण कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया हैः- | भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 2004 में प्रकाशित एक संग्रह की भूमिका में लेखिका ने इस केन्द्रीय विषय के सम्बन्ध में अपना स्पष्टीकरण कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया हैः- | ||
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इनकी रचनाओं के अनुवाद पंजाबी, अंग्रेजी,उर्दू, कन्नड़, गुजराती, मराठी, और उड़िया आदि भाषाओं में प्रमुख रूप से हुये हैं। | इनकी रचनाओं के अनुवाद पंजाबी, अंग्रेजी,उर्दू, कन्नड़, गुजराती, मराठी, और उड़िया आदि भाषाओं में प्रमुख रूप से हुये हैं। | ||
− | इन्हें अनन्त गोपाल शेवड़े पुरस्कार, | + | इन्हें अनन्त गोपाल शेवड़े पुरस्कार, [[हिन्दी अकादमी पुरस्कार]], तथा भारतीय भाषा परिषद् पुरस्कार सहित अनेक सम्मान भी प्राप्त हुये हैं। |
16:11, 16 जून 2011 के समय का अवतरण
समय की सुरंग में लुप्त होते यथार्थ को तलाशती लेखिका राजी सेठ!
आलेखः- अशोक कुमार शुक्ला
सन् 1935 में वर्तमान पाकिस्तान के छावनी नौशेहरा नामक स्थान में जन्म लेने वाली राजी सेठ ने अंग्रेजी साहित्य से एम0ए0 करने के उपरांत तुलनात्मक धर्म और भारतीय दर्शन मे विशेष अध्ययन किया। इन्होंने लेखन की शुरूआत सन् 1974 में काफी विलंब से की। अपने सक्रिय लेखन की शुरूआत के संबंध मे वर्ष 1998 में एक साहित्यिक पत्रिका ‘वागर्थ’ में अपने एक लेख में इस प्रकार लिखा हैः-
‘‘ ----फिलहाल तो इतना कि -------इनमें एक निरन्तरता है इस बात को स्पष्ट कर देना इसलिये जरूरी है कि जब लिखना शुरू किया था ( लिखना मैने देर से शुरू किया , जीवन के उत्तरार्र्द्ध में ) तो मन पर चयन धर्मिता का खासा दबाव पडता था लगता था रचनाकार को सदा अपना श्रेष्ठतम् ही प्रस्तुत करना चाहिये। इस मानसिकता के चलते अपने पहले कहानी संग्रह ‘अंधे मोड से आगे’ की भूमिका में यह भी लिख दिया था कि धरती पर जो कदम वजनदार पडते हैं वही अपना निशान छोडते हैं।
ज्यों ज्यों समय बीतता गया उस सोच और संकल्प में दरार आती गयी। लगा जीवन में अच्छा-बुरा, ऊंच-नीच, सफल -असफल दोनों हैं। यदि सदा ही वजनदार कदमों की बात होती रही तो अपनी यात्रा अपने आपको भी कभी नहीं दीखेगी। अनुभव के प्रत्यक्षीकरण का कोई वस्तुपरक पैमाना बन ही नहीं पाएगा जो अपने आप में एक बहुत बडी सीख है। -----’’ इनकी रचनाओं में ‘मृत्यु’ बार-बार केन्द्रीय विषय बनकर उभरती रही है। साहित्यिक पत्रिका ’हंस‘ द्वारा प्रायोजित श्रंखला ‘आत्म-तर्पण’ में हिस्सा लेने के दौरान लेखिका ने अनेक अवसरों पर इस तथ्य को रेखांकित भी किया हैः- ‘‘मृत्यु औचक आती है और कुुछ न भी करे तो संवेदनशून्य और परिपक्व (?) तो करती ही करती है। यह अजीब बात है कि मृत्यु से निबटने की समझ मृत्यु के घटित में से ही आती है। रचना की शब्दावली में यह अनुभव की कीमत है। ’’ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 2004 में प्रकाशित एक संग्रह की भूमिका में लेखिका ने इस केन्द्रीय विषय के सम्बन्ध में अपना स्पष्टीकरण कुछ इन शब्दों में व्यक्त किया हैः-
‘‘------- इसी सन्दर्भ में अपने को टटोलते यह भी स्पष्ट हुआ कि बचपन से ही मेरी मानसिकता में किसी न किसी रूप में मृत्यु का हस्तक्षेप रहा। एक अनजाना अमूर्त डर पल-पल साथ सांस लेता रहा। होश संभालते ही मैने अपने आपको मृत्यु की कामना करते पाया, जिसकी जड़ में एक दूसरा डर था कि चूंकि मैं किसी अत्यन्त निकट के आत्मीय व्यक्ति (उस समय तो उस घेरे में माता पिता ओर दादा ही थे) का अभाव सहन नहीं कर पाऊंगी, अतः मुझे उससे पहले ही प्रयाण कर जाना चाहिए। कल्पना का यह आतंक वर्षो तक मेरे साथ चला। पता नहीं इसे अतिरिक्त संवेदनशीलता कहेंगे या सम्बन्धों को लेकर अपनी अपेक्षाओं की जकड़न, पर यह मानसिकता कालान्तर में वस्तुओं, विषयों, वृत्तों , व्यक्तियों से मेरे सम्बन्ध को निर्धारित जरूर करती रही।------
---अंततः डर के इस तनाव में तरमीम हुई वास्तविकता की मुठभेड से। तब तक तो यह भी स्पष्ट नहीं था कि जिस चीज से डर रहे हैं वह वस्तुतः है क्या। जब जाना ही नही ंतो डर कैसा? ----अन्ततः मृत्यु से आमना-सामना हुआ। होना ही था। एक बार नहीं कई कई बार जल्दी-जल्दीं दारूणता की हर सरहद तोड़ते हुये, काल- अकाल के भ्रम को रौंदते हुए... एक अभीत स्तब्धता में जीवन को सौंपते हुए।---------’’
इनकी रचनाओं मंे ‘निष्कवच’(उपन्यास), ‘तत-सम’(उपन्यास), ‘अन्धे मोड से आगे’ (कहानी-संग्रह), ‘तीसरी हवेली’(कहानी- संग्रह ),‘यात्रा मुक्त’ (कहानी-संग्रह), ‘दूसरे देश काल में (कहानी-संग्रह), ‘ यह कहानी नहीं ’(कहानी-संग्रह), के अतिरिक्त जर्मन कवि राइनेर मारिया के पत्रों की दो पुस्तकों का हिंन्दी में रूपान्तरण भी किया है।
इनकी रचनाओं के अनुवाद पंजाबी, अंग्रेजी,उर्दू, कन्नड़, गुजराती, मराठी, और उड़िया आदि भाषाओं में प्रमुख रूप से हुये हैं।
इन्हें अनन्त गोपाल शेवड़े पुरस्कार, हिन्दी अकादमी पुरस्कार, तथा भारतीय भाषा परिषद् पुरस्कार सहित अनेक सम्मान भी प्राप्त हुये हैं।