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उठ जाता है स्वर्गलोक तक, पाने को मेरी करुणा की वृष्टि
लघु रज के कण करते नित श्रृंगार
भावों की भाषा जैसे अनुगामी, निखिल समस्टि समष्टि रूप में व्यष्टि
अम्बर मैं, भूतल मैं, पारावार
शून्य, काल, नक्षत्र, ग्रहों पर जाता हूँ टेकता अगम की यष्टि
मानस की मानसी, सूर के अंध नयन की ज्योति प्रखर चपला-सी
कोटि-कोटि कंठों की प्राणाधार
चंचल मधु-अंचला, खादी खड़ी हिमनग पर, हिमनग-सी उज्जवल, अचला-सी
आज वही शारद-हासिनी उदार
दे रही मुझे विजय-उपहार
 
मैं भावों का राजकुमार
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