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+ | इस तरह कविता में ढ़ोता हूँ | ||
+ | आदमी को कभी नहीं खोता हूँ। | ||
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20:43, 19 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
मेरी कविताओं की ज़मीन
उस आदमी के भीतर का धीरज है
छिन चुकी है
जिसके पावों की ज़मीन
भुरभुरा-उर्वर किये है
इस ज़मीन को
हरियाते घावों की दुखन
इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है
कुछ नहीं होता जब
ज़मीन पर
तब दर्द की फसल होती है
मैं इसी फसल को
बार बार काटता हूँ
बार बार बोता हूँ
आदमी के रिश्ते को
इस तरह कविता में ढ़ोता हूँ
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।