|
|
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) |
पंक्ति 1: |
पंक्ति 1: |
| | | |
− | तरह-तरह के स्वर दूतों से
| |
− | संवादों की जुड़ी कड़ी
| |
− | {{KKGlobal}}
| |
− | {{KKRachna
| |
− | |रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
| |
− | |संग्रह=
| |
− | }}
| |
− | {{KKCatNavgeet}}
| |
− | <Poem>
| |
− | टेलीकॉम जोड़ता ग्राहक
| |
− | अपने सस्ते प्लानों से
| |
− | नये प्रलोभन देता रहता
| |
− | अपनी मीठी तानों से
| |
− |
| |
− | फसती रहती जनता भोली
| |
− | सम्मोहित जब करे छड़ी
| |
− |
| |
− | कुछ तो लाभ हुआ जनता का
| |
− | जबसे टैरिफ वार हुआ
| |
− | लेकिन सच है कंपनियों ने
| |
− | हरदम लूटा माल-पुआ
| |
− |
| |
− | ग्राफ बढ़ा है कंपनियों का
| |
− | जबसे आ मैदान खडीं
| |
− |
| |
− | खून- पसीना बनकर बहता
| |
− | बटुआ दे हम बतियाते
| |
− | नहीं आंकलन कर पाए हैं
| |
− | हलके अपने क्यों खाते?
| |
− |
| |
− | जगे हुए को कौन जगाये
| |
− | जब हो औंधी पड़ी घड़ी!
| |
− | </poem>
| |