भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पेड़ और धर्म / सुरेश यादव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश यादव }} {{KKCatKavita‎}} <poem> बस्ती के हरर आँगन में पेड…)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 7 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
{{KKCatKavita‎}}
 
{{KKCatKavita‎}}
 
<poem>
 
<poem>
बस्ती के हरर आँगन में  
+
बस्ती के हर आँगन में  
 
पेड़ हो बड़ा  
 
पेड़ हो बड़ा  
खूब हो घनार
+
खूब हो घना
खुशबूदार फूलर हों  
+
खुशबूदार फूल हों  
 
फल मीठे आते हों लदकर  
 
फल मीठे आते हों लदकर  
  
  
 
छाँव उसकी बड़ी दूर तक जाए  
 
छाँव उसकी बड़ी दूर तक जाए  
खुशबू की कहानियाँ हो घर - घर  
+
खुशबू की कहानियाँ हो घर-घर  
  
  
 
हवा के झोंके में  
 
हवा के झोंके में  
झरते रहें फलर
+
झरते रहें फल
 
उठाते-खाते गुजरते रहें राहगीर  
 
उठाते-खाते गुजरते रहें राहगीर  
  
  
ऐसा एकर पेड़  
+
ऐसा कर पेड़  
 
बस्ती के हर आँगन में  
 
बस्ती के हर आँगन में  
 
लगाना ही होगा  
 
लगाना ही होगा  
पंक्ति 28: पंक्ति 28:
 
लोग  
 
लोग  
 
भूल गए हैं – धर्म  
 
भूल गए हैं – धर्म  
पेड़ों को बतानान ही होगा।  
+
पेड़ों को बताना ही होगा।  
 
00
 
00
 
   
 
   

10:26, 12 अगस्त 2011 के समय का अवतरण

बस्ती के हर आँगन में
पेड़ हो बड़ा
खूब हो घना
खुशबूदार फूल हों
फल मीठे आते हों लदकर


छाँव उसकी बड़ी दूर तक जाए
खुशबू की कहानियाँ हो घर-घर


हवा के झोंके में
झरते रहें फल
उठाते-खाते गुजरते रहें राहगीर


ऐसा कर पेड़
बस्ती के हर आँगन में
लगाना ही होगा


लोग
भूल गए हैं – धर्म
पेड़ों को बताना ही होगा।
00