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"कबीर दोहावली / पृष्ठ २" के अवतरणों में अंतर

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|सारणी=दोहावली / कबीर  
 
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तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
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तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥
  
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर <BR/>
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आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।  
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर 101 <BR/><BR/>
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औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत 102 ॥  
  
आस पराई राख्त, खाया घर का खेत <BR/>
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सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।  
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत 102 <BR/><BR/>
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दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार 103 ॥  
  
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार <BR/>
+
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।  
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार 103 <BR/><BR/>
+
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय 104 ॥  
  
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय <BR/>
+
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।  
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय 104 <BR/><BR/>
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घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव 105 ॥  
  
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव <BR/>
+
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।  
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव 105 <BR/><BR/>
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सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय 106 ॥  
  
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय <BR/>
+
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।  
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय 106 <BR/><BR/>
+
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय 107 ॥  
  
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय <BR/>
+
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।  
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय 107 <BR/><BR/>
+
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार 108 ॥  
  
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार <BR/>
+
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।  
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार 108 <BR/><BR/>
+
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय 109 ॥  
  
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय <BR/>
+
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।  
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय 109 <BR/><BR/>
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सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय 110 ॥  
  
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय <BR/>
+
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।  
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय 110 <BR/><BR/>
+
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार 111 ॥  
  
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार <BR/>
+
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।  
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार 111 <BR/><BR/>
+
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल 112 ॥  
  
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल <BR/>
+
जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।  
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल 112 <BR/><BR/>
+
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख 113 ॥  
  
जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख <BR/>
+
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।  
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख 113 <BR/><BR/>
+
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और 114 ॥  
  
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर <BR/>
+
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।  
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और 114 <BR/><BR/>
+
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो 115 ॥  
  
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो <BR/>
+
जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो 115 <BR/><BR/>
+
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार 116 ॥  
  
जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार <BR/>
+
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।  
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार 116 <BR/><BR/>
+
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय 117 ॥  
  
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय <BR/>
+
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।  
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय 117 <BR/><BR/>
+
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार 118 ॥  
  
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार <BR/>
+
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।  
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार 118 <BR/><BR/>
+
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार 119 ॥  
  
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार <BR/>
+
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।  
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार 119 <BR/><BR/>
+
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय 120 ॥  
  
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय <BR/>
+
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।  
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय 120 <BR/><BR/>
+
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार 121 ॥  
  
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार <BR/>
+
जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।  
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार 121 <BR/><BR/>
+
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास 122 ॥  
  
जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस <BR/>
+
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।  
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास 122 <BR/><BR/>
+
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय 123 ॥  
  
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय <BR/>
+
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।  
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय 123 <BR/><BR/>
+
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान 124 ॥  
  
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान <BR/>
+
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।  
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान 124 <BR/><BR/>
+
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह 125 ॥  
  
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह <BR/>
+
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।  
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह 125 <BR/><BR/>
+
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत 126 ॥  
  
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत <BR/>
+
सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।  
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत 126 <BR/><BR/>
+
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह 127 ॥  
  
सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह <BR/>
+
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।  
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह 127 <BR/><BR/>
+
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग 128 ॥  
  
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग <BR/>
+
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।  
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग 128 <BR/><BR/>
+
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव 129 ॥  
  
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव <BR/>
+
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।  
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव 129 <BR/><BR/>
+
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय 130 ॥  
  
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय <BR/>
+
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।  
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय 130 <BR/><BR/>
+
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह 131 ॥  
  
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह । <BR/>
+
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।  
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥ <BR/><BR/>
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+
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं । <BR/>
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राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥  
 
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥  
  
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । <BR/>
+
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।  
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥ <BR/><BR/>
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अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥  
  
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय । <BR/>
+
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।  
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥ <BR/><BR/>
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एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥  
  
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । <BR/>
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साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।  
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥ <BR/><BR/>
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आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥  
  
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप । <BR/>
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हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।  
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥ <BR/><BR/>
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निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥  
  
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत । <BR/>
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आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।  
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥ <BR/><BR/>
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जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥  
  
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय । <BR/>
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आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥ <BR/><BR/>
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सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥  
  
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट । <BR/>
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अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।  
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥ <BR/><BR/>
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चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥  
  
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान । <BR/>
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अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।  
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥ <BR/><BR/>
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हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥  
  
आस पराई राखता, खाया घर का खेत । <BR/>
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आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।  
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥ <BR/><BR/>
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और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥  
  
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक । <BR/>
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आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।  
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥ <BR/><BR/>
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कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥  
  
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद । <BR/>
+
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।  
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥ <BR/><BR/>
+
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥  
  
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । <BR/>
+
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।  
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥ <BR/><BR/>
+
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥  
  
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान । <BR/>
+
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।  
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥ <BR/><BR/>
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सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥  
  
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । <BR/>
+
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।  
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥ <BR/><BR/>
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एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥  
  
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय । <BR/>
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उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।  
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥ <BR/><BR/>
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इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥  
  
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय । <BR/>
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अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।  
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥ <BR/><BR/>
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मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥  
  
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार । <BR/>
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एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।  
 
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥  
 
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥  
  
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए । <BR/>
+
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।  
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥ <BR/><BR/>
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औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥  
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कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
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खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥
  
कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय <BR/>
+
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।  
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय 151 <BR/><BR/>
+
एक से परचे भया, एक बाहे समाय 152 ॥  
  
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय <BR/>
+
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।  
एक से परचे भया, एक बाहे समाय 152 <BR/><BR/>
+
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय 153 ॥  
  
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय <BR/>
+
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।  
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय 153 <BR/><BR/>
+
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय 154 ॥  
  
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय । <BR/>
+
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।  
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय 154 <BR/><BR/>
+
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय 155 ॥  
  
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय <BR/>
+
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।  
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय 155 <BR/><BR/>
+
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय 156 ॥  
  
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय <BR/>
+
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।  
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय 156 <BR/><BR/>
+
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय 157 ॥  
  
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय <BR/>
+
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।  
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय 157 <BR/><BR/>
+
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान 158 ॥  
  
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान <BR/>
+
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।  
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान 158 <BR/><BR/>
+
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं 159 ॥  
  
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं <BR/>
+
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।  
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं 159 <BR/><BR/>
+
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ 160 ॥  
  
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ <BR/>
+
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।  
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ 160 <BR/><BR/>
+
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय 161 ॥  
  
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय <BR/>
+
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।  
काया बह्रा ईश बस, मर्म काहूँ पाय 161 <BR/><BR/>
+
इनके भये उतके, चाले मूल गवाय 162 ॥  
  
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय <BR/>
+
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।  
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय 162 <BR/><BR/>
+
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार 163 ॥  
  
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत हार <BR/>
+
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला कोय
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार 163 <BR/><BR/>
+
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय 164 ॥  
  
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय <BR/>
+
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।  
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय 164 <BR/><BR/>
+
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय 165 ॥  
  
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय <BR/>
+
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।  
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय 165 <BR/><BR/>
+
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर 166 ॥  
  
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर <BR/>
+
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।  
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर 166 <BR/><BR/>
+
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह 167 ॥  
  
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह <BR/>
+
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।  
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह 167 <BR/><BR/>
+
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय 168 ॥  
  
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय <BR/>
+
कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।  
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय 168 <BR/><BR/>
+
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं 169 ॥  
  
कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं <BR/>
+
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।  
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं 169 <BR/><BR/>
+
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार 170 ॥  
  
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार <BR/>
+
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।  
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार 170 <BR/><BR/>
+
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय 171 ॥  
  
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय <BR/>
+
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।  
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय 171 <BR/><BR/>
+
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर 172 ॥  
  
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर । <BR/>
+
कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि ।  
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥ <BR/><BR/>
+
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥  
कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि । <BR/>
+
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥ <BR/><BR/>
+
  
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ । <BR/>
+
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।  
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥ <BR/><BR/>
+
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥  
  
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । <BR/>
+
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।  
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥ <BR/><BR/>
+
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥  
  
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव । <BR/>
+
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।  
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥ <BR/><BR/>
+
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥  
  
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । <BR/>
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कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।  
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥ <BR/><BR/>
+
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥  
  
कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । <BR/>
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कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।  
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥ <BR/><BR/>
+
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥  
  
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । <BR/>
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केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।  
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09:29, 12 जून 2013 के समय का अवतरण

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥

आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥

सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥

सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥

बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥

आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥

कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥

ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥

सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥

सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥

जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥

सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 114 ॥

यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥

जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥ 116 ॥

जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥

जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥

लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥

एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥

जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥

साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥

अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥

खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥ 125 ॥

लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥

सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥

भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥

गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥

कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥

साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥

एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥

साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥

हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥

आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥

आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥

अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥

अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥

आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥

आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥

आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥

आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥

आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥

उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥

उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥

अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥

एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥

कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥

एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 ॥

कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥

कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥

कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥

कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥

को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥

कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥

काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥

काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥

काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥

कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥

कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥

कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥

कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥

कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥

कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥

करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥

कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥

कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥

कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥

कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥

कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥

कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥

कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥

कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥

कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥

कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥

खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥

चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥

घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥

गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥

जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥

जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥

जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥

जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥

ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥

जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥

जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥

जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥

जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥

झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥

जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥

जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥


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