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+ | ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । | ||
+ | प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥ | ||
− | + | तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । | |
− | + | माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ | |
− | + | तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । | |
− | + | सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥ | |
− | + | तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । | |
− | + | तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ | |
− | + | दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार । | |
− | + | तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥ | |
− | + | दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । | |
− | + | रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ | |
− | + | धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । | |
− | + | माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥ | |
− | + | न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । | |
− | + | मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ | |
− | + | पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । | |
− | + | एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥ | |
− | + | पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । | |
− | + | ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥ | |
− | + | पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । | |
− | + | देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥ | |
− | + | पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार । | |
− | + | याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥ | |
− | + | पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । | |
− | + | अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥ | |
− | + | प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय । | |
− | + | चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥ | |
− | + | बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय । | |
− | + | कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥ | |
− | + | बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय । | |
− | + | समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥ | |
− | + | बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम । | |
− | + | कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥ | |
− | + | बानी से पहचानिए, साम चोर की घात । | |
− | + | अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥ | |
− | + | बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । | |
− | + | पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥ | |
− | + | मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय । | |
− | + | बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥ | |
− | + | माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश । | |
− | + | जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥ | |
− | + | भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग । | |
− | + | कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ | |
− | + | माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । | |
− | + | भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥ | |
− | + | मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ । | |
− | + | साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥ | |
− | + | माली आवत देख के, कलियान करी पुकार । | |
− | + | फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥ | |
− | + | मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय । | |
− | + | मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥ | |
− | + | ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं । | |
− | + | सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥ | |
− | + | या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ । | |
− | + | लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥ | |
− | + | राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास । | |
− | + | नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥ | |
− | + | रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । | |
− | + | हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ | |
− | + | राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । | |
− | + | जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥ | |
− | + | संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । | |
− | + | कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥ | |
− | + | साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय । | |
− | + | ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ | |
− | + | साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय । | |
− | + | चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥ | |
− | + | संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । | |
− | + | कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ | |
− | + | साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय । | |
− | + | चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥ | |
− | + | लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं । | |
− | + | एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥ | |
− | + | हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह । | |
− | + | सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥ | |
− | + | ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । | |
− | + | आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥ | |
− | + | ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह । | |
− | + | निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥ | |
− | + | क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात । | |
− | + | कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥ | |
− | + | राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं । | |
− | + | क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥ | |
− | + | बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । | |
− | + | जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ | |
− | बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । | + | |
− | जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ | + | |
− | ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव । | + | ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव । |
− | दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥ | + | दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥ |
− | सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग । | + | सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग । |
− | बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥ | + | बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥ |
− | कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष । | + | कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष । |
− | स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥ | + | स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥ |
− | यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । | + | यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । |
− | सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ | + | सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ |
− | तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । | + | तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । |
− | वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ | + | वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ |
− | राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । | + | राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । |
− | बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ | + | बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ |
− | कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । | + | कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । |
− | सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥ | + | सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥ |
− | कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । | + | कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । |
− | फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ | + | फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ |
− | लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । | + | लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । |
− | कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ | + | कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ |
− | बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । | + | बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । |
− | राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥ | + | राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥ |
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− | + | यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं । | |
− | + | लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥ | |
− | + | अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां । | |
− | + | के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥ | |
− | + | इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं । | |
− | + | लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥ | |
− | + | अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि । | |
− | + | जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥ | |
− | + | सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त । | |
− | + | और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥ | |
− | + | जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ । | |
− | + | मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥ | |
− | + | कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त । | |
− | + | बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥ | |
− | + | सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे । | |
− | + | दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥ | |
− | + | परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ । | |
− | + | सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥ | |
− | + | पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ । | |
− | + | लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥ | |
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− | + | हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान । | |
− | + | काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥ | |
− | + | जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ । | |
− | + | धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥ | |
− | + | पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई । | |
− | मैं | + | आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥ |
− | + | दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ । | |
− | + | हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥ | |
− | + | भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ । | |
− | नैनूं | + | मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥ |
− | कबीर | + | कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ । |
− | + | एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ । |
− | + | नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥ | |
− | + | कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं । | |
− | + | गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥ | |
− | + | कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत । | |
− | + | जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥ | |
− | + | जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव । | |
− | + | कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत । | |
− | + | सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥ | |
− | + | कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि । | |
− | + | कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥ | |
− | + | भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि । | |
− | + | हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥ | |
− | + | परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि । | |
− | + | खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥ | |
− | + | परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं । | |
− | + | दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥ | |
− | + | ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना । | |
− | + | ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥ | |
− | + | कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद । | |
− | + | नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥ | |
− | + | कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ । | |
− | + | राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥ | |
− | + | स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास । | |
− | + | राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥ | |
− | + | इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम । | |
− | + | स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं । | |
− | + | उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥ | |
− | + | कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ । | |
− | + | लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥ | |
− | + | कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई । | |
− | + | दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥ | |
+ | कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार । | ||
+ | पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥ | ||
− | + | तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ । | |
− | + | रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ | |
− | + | ||
− | | | + | चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि । |
− | + | फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥ | |
+ | |||
+ | कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम । | ||
+ | कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥ | ||
+ | [[कबीर दोहावली / पृष्ठ ४|अगला भाग >>]] |
08:19, 12 जून 2013 के समय का अवतरण
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ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥
तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥
दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥
बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥
माली आवत देख के, कलियान करी पुकार ।
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥
मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥
या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥
राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास ।
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥
संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय ।
कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय ।
ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥
साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥
संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥
लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं ।
एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥
हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह ।
सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥
ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार ।
आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥
ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह ।
निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥
क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात ।
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥
बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार ।
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥
ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥
कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥
कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥
बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥
यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥
अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥
अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे ।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥
परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥
पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ ।
लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥
हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान ।
काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥
जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ ।
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥
पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई ।
आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥
दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ ।
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥
भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।
मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥
कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ ।
एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥
कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥
कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत ।
जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥
जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव ।
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥
पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥
कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि ।
कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥
भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि ।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥
परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥
ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना ।
ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥
कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ ।
राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥
स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास ।
राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥
इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम ।
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥
ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं ।
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥
कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई ।
दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥
कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार ।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥
तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ ।
रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥
चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि ।
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम ।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥
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