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"भाव-सागर / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे
 
थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे
 
 
त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए
 
त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए
 
 
क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा
 
क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा
 
 
पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता
 
पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता
 
 
अनुभव करके दृदय व्यथित क्यों हो रहा
 
अनुभव करके दृदय व्यथित क्यों हो रहा
 
 
क्या इसमें कारण है कोई, क्या कभी
 
क्या इसमें कारण है कोई, क्या कभी
 
 
और वस्तु से जब तक कुछ फिटकार ही
 
और वस्तु से जब तक कुछ फिटकार ही
 
 
मिलता नही हृदय को, तेरी ओर वह
 
मिलता नही हृदय को, तेरी ओर वह
 
 
तब तक जाने को प्रस्तुत होता नही
 
तब तक जाने को प्रस्तुत होता नही
 
 
कुछ निजस्व-सा तुम पर होता भान है
 
कुछ निजस्व-सा तुम पर होता भान है
 
 
गर्व-स्फीत हृदय होता तव स्मरण में
 
गर्व-स्फीत हृदय होता तव स्मरण में
 
 
अहंकार से भरी हमारी प्रार्थना
 
अहंकार से भरी हमारी प्रार्थना
 
 
देख न शंकित होना, समझो ध्यान से
 
देख न शंकित होना, समझो ध्यान से
 
 
वह मेरे में तुम हो साहस दे रहे
 
वह मेरे में तुम हो साहस दे रहे
 
 
लिखता हूँ तुमको, फिर उसको देख के
 
लिखता हूँ तुमको, फिर उसको देख के
 
 
स्वयं संकुचित होकर भेज नही सका
 
स्वयं संकुचित होकर भेज नही सका
 
 
क्या? अपूर्ण रह जाती भाषा, भाव भी
 
क्या? अपूर्ण रह जाती भाषा, भाव भी
 
 
यथातथ्य प्रकटित हो सकते ही नही
 
यथातथ्य प्रकटित हो सकते ही नही
 
 
अहो अनिर्वचनीय भाव-सागर! सुनो
 
अहो अनिर्वचनीय भाव-सागर! सुनो
 
 
मेरी भी स्वर-लहरी क्या है कह रही
 
मेरी भी स्वर-लहरी क्या है कह रही
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01:12, 20 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे
त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए
क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा
पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता
अनुभव करके दृदय व्यथित क्यों हो रहा
क्या इसमें कारण है कोई, क्या कभी
और वस्तु से जब तक कुछ फिटकार ही
मिलता नही हृदय को, तेरी ओर वह
तब तक जाने को प्रस्तुत होता नही
कुछ निजस्व-सा तुम पर होता भान है
गर्व-स्फीत हृदय होता तव स्मरण में
अहंकार से भरी हमारी प्रार्थना
देख न शंकित होना, समझो ध्यान से
वह मेरे में तुम हो साहस दे रहे
लिखता हूँ तुमको, फिर उसको देख के
स्वयं संकुचित होकर भेज नही सका
क्या? अपूर्ण रह जाती भाषा, भाव भी
यथातथ्य प्रकटित हो सकते ही नही
अहो अनिर्वचनीय भाव-सागर! सुनो
मेरी भी स्वर-लहरी क्या है कह रही