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सहज तत्परता शुभ-कर्म में | सहज तत्परता शुभ-कर्म में |
11:45, 12 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
(१)
चिरकृतज्ञ, सदा उपकार में,
निरत पुण्यचरित्र अनेक हैं।
परहितोद्यत स्वार्थ बिना कहीं,
विरल मानव है इस लोक में॥
(२)
सहज तत्परता शुभ-कर्म में
विनयिता छलहीन वदान्यता।
पर-अनिंदकता गुण-ग्राहिता,
पुरुष-पुंगव के शुभ चिह्न हैं॥
(३)
निज बड़प्पन की सुन के कथा,
सकुचता जिसका चित चारु है।
विकसता सुन के परकीर्ति है,
जगत में वह सज्जन धन्य है॥
(४)
सुजन की यह एक विचित्रता,
बहुत रोचक और मनोज्ञ है।
समझ के धन को तृण तुल्य भी,
नमित हैं रहते उस भार से॥
(५)
वचन निश्चित सिंधुर-दंत सा,
सुजन हैं सविवेक निकालते।
कमठ के मुख-सी खल की गिरा,
निकलती लुकती बहु बार है॥
(६)
सुजन के उर बीच कठोरता,
कुलिश से बढ़के रहती न जो।
वचन-शायक दुष्ट मनुष्य के
सह भला सकते किस भाँति वे॥
(७)
पड़ महज्जन घोर विपत्ति में,
निज महत्व कभी तजते नहीं।
पड़ कपूर हुतासन-बीच भी,
सुरभि है सब ओर पसारता॥
(८)
भव पराभव में जिसके नहीं,
उपजता कुछ हर्ष-विषाद है।
समर-धीर गुणी उस पुत्र को,
विरल है जननी जनती कहीं॥
(९)
वचन में मुद, भाषण में सुधा,
हृदय में जिसके रहती दया।
परहितेच्छुक सो इस लोक में,
पुरुष-पुंगव पूजन-योग्य है॥
(१०)
उपजता उर में न कदापि है,
यदि हुआ, क्षण में गत हो गया।
यदि रहा, समझो वह व्यर्थ है,
खल-कृपा-सम सज्जन कोप है॥
(११)
विटप छिन्न हुआ बढ़ता पुनः,
न रहती विधु में नित क्षीणता।
सुजन के मन में यह देख के,
विकलता बढ़ती न विपत्ति में॥
(१२)
जल न पान स्वयं करती नदी,
फल न पादप हैं चखते स्वयं।
जलद सस्य स्वयं चरते नहीं,
सुजन-वैभव अन्य-हितार्थ है॥
(१३)
सुजन सूप समान सदैव ही,
सुगुण हैं गहते तज दोष को।
खल सदा चलनी सम दोष ही,
ग्रहण हैं करते गुण छोड़ के॥
(१४)
यश मिले अथवा अपकीर्ति हो,
धन रहे न रहे, कुछ क्यों न हो।
हृदय में रहते तक प्राण के,
बुध नहीं तजते पथ धर्म का॥