भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कभी-कभी / रमेश रंजक" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=हरापन नहीं टूटेग...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 22: | पंक्ति 22: | ||
कभी-की यह क्या होता है | कभी-की यह क्या होता है | ||
− | हम होते | + | हम होते हैं नहीं |
और होते भी हैं | और होते भी हैं | ||
मुझसे ही मेरा यह कैसा | मुझसे ही मेरा यह कैसा |
01:39, 25 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
कभी-कभी यह क्या होता है
मुझे लिटा कर—
कान चले जाते हैं कहीं पड़ोस में
सारी रात खड़े रहते हैं ओस में
आँख मूँदता हूँ तो—
मैं ही मैं होता हूँ
छोटा हो जाता हूँ आँखें खोलकर
सारा का सारा इतिहास
चिपक जाता है
मेरे अदना कमरे के भूगोल पर
दृष्टि रेंगती जाती है दीवार पर
देह डूबती जाती है अफ़सोस में
कभी-कभी
कभी-की यह क्या होता है
हम होते हैं नहीं
और होते भी हैं
मुझसे ही मेरा यह कैसा
समझौता है ?
जितना तार खींचता हूँ मैं होश का
थोड़ा कहीं टूट जाता है जोश में
कभी-कभी