(''''अग्निशेखर''' प्रमुख कृतियाँ किसी भी समय (1992), मुझसे ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Arti Singh (चर्चा | योगदान) |
||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKRachnakaarParichay | |
− | + | |रचनाकार=अग्निशेखर | |
− | + | }} | |
+ | डॉक्टर कुलदीप सुंबली (अग्निशेखर) संभवतः न कश्मीर की राजनीति में परिचय के मोहताज हैं, न हिन्दी साहित्य में। | ||
+ | ==जन्म== | ||
+ | 03/05/1955, श्रीनगर (कश्मीर) | ||
+ | 6-बी, भवानी नगर, जानीपुर, जम्मू-180 007 | ||
+ | |||
+ | ==दुर्भाग्य से निर्वासन== | ||
+ | अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में जब अग्निशेखर कश्मीर विश्वविद्यालय में हिन्दी में पी.एच.डी. कर रहे थे, तो उन्होंने शायद सोचा ही न होगा कि नियति उन को नेतृत्व की इस दिशा में धकेल देगी। फिर अस्सी का दशक समाप्त होते होते, कश्मीर घाटी में इनक़लाब सा आ गया — तथाकथित आज़ादी का इनक़लाब। वर्षों से कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद का जो लावा उबल रहा था, वह ज्वालामुखी बन कर फूट पड़ा। कुछ दिनों के लिए, कुछ शहरों में, लग रहा था कि अलगाववादी अपने मक़सद में कामयाब हो गए हैं। मस्जिदों के लाउड-स्पीकरों से, उर्दू अखबारों में छपी सूचनाओं से एक ही आवाज़ आ रही थी – रलिव या गलिव, (हमारे साथ) मिलो या मरो। ऐसे में कश्मीरी हिन्दू और अन्य भारतवादी आतंक के घेरे में आ गए। कुछ लोगों को निशाना बनाया गया, जिन में गणमान्य लोग भी थे और साधारण लोग भी। कई गाँव के गाँव ऐसे में एथ्निक क्लीन्सिंग की भूमिका बनाए गए, ताकि बाकी भारतवादियों को सबक मिले। लाखों लोगों का एक पूरा समुदाय, जो पीढ़ियों से कश्मीर के अतिरिक्त किसी घर को नहीं जानता था, समूल उखाड़ फेंका गया। | ||
+ | |||
+ | कश्मीरियों के लिए यह अनुभव संभवतः विभाजन के समय पाकिस्तान से आए शरणार्थियों या तालिबान द्वारा अफ़गानिस्तान से भगाए गए हिन्दुओं से कम नहीं था, पर यह इस दृष्टि से भिन्न था कि जहाँ पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से भागे हिन्दुओं को शरणार्थी मान कर मुआवज़ा दिया गया, कश्मीरियों को कभी शरणार्थी नहीं माना गया क्योंकि कश्मीर तो अभी भी भारत का "अटूट अंग" था। कश्मीरियों की वर्तमान पीढ़ी के लिए विस्थापन जीवन भर की वेदना बन गया। इन्हीं लाखों विस्थापितों में अग्निशेखर के परिवार ने भी जम्मू में आकर डेरा डाला। परन्तु व्यक्तिगत कठिनाइयों के बावजूद, पारिवारिक त्रासदियों के बावजूद, बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के उन्होंने अपने अधिकार के लिए लड़ने का निश्चय किया। तभी अपने कुछ युवा मित्रों के साथ वे राष्ट्रीय समाचार माध्यमों में पनुन कश्मीर (अपना कश्मीर) के कन्वीनर के रूप में अवतरित हुए। पनुन कश्मीर का नारा था, "असि छु तरुन कश्मीर" यानी, हमें (वापस अपने) कश्मीर जाना है। पिछले डेढ़ दशक में उन का संघर्ष कई मरहलों से गुज़रा, और मंज़िल अभी भी दूर है। | ||
+ | ==प्रमुख कृतियाँ== | ||
किसी भी समय (1992), | किसी भी समय (1992), | ||
पंक्ति 9: | पंक्ति 19: | ||
काल वृक्ष की छाया में (2002), | काल वृक्ष की छाया में (2002), | ||
− | + | जवाहर टनल (2010) | |
+ | |||
+ | ==सम्मान== | ||
+ | अग्निशेखर का इस बीच साहित्य का भी मनन होता रहा। तीन कविता संग्रह छपे । एक कहानी पर फिल्म भी बनी, उस फिल्म में कैमियो रोल भी किया। हाल में उन्हें छत्तीसगढ़ सरकार के प्रतिष्ठित [[सूत्र सम्मान]] से पुरस्कृत किया गया। वे वेब पत्रिका कृत्या के सम्पादक मंडल में भी शामिल हैं। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से पुरस्कृत हैं। |
23:21, 2 मई 2021 के समय का अवतरण
डॉक्टर कुलदीप सुंबली (अग्निशेखर) संभवतः न कश्मीर की राजनीति में परिचय के मोहताज हैं, न हिन्दी साहित्य में।
जन्म
03/05/1955, श्रीनगर (कश्मीर) 6-बी, भवानी नगर, जानीपुर, जम्मू-180 007
दुर्भाग्य से निर्वासन
अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में जब अग्निशेखर कश्मीर विश्वविद्यालय में हिन्दी में पी.एच.डी. कर रहे थे, तो उन्होंने शायद सोचा ही न होगा कि नियति उन को नेतृत्व की इस दिशा में धकेल देगी। फिर अस्सी का दशक समाप्त होते होते, कश्मीर घाटी में इनक़लाब सा आ गया — तथाकथित आज़ादी का इनक़लाब। वर्षों से कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद का जो लावा उबल रहा था, वह ज्वालामुखी बन कर फूट पड़ा। कुछ दिनों के लिए, कुछ शहरों में, लग रहा था कि अलगाववादी अपने मक़सद में कामयाब हो गए हैं। मस्जिदों के लाउड-स्पीकरों से, उर्दू अखबारों में छपी सूचनाओं से एक ही आवाज़ आ रही थी – रलिव या गलिव, (हमारे साथ) मिलो या मरो। ऐसे में कश्मीरी हिन्दू और अन्य भारतवादी आतंक के घेरे में आ गए। कुछ लोगों को निशाना बनाया गया, जिन में गणमान्य लोग भी थे और साधारण लोग भी। कई गाँव के गाँव ऐसे में एथ्निक क्लीन्सिंग की भूमिका बनाए गए, ताकि बाकी भारतवादियों को सबक मिले। लाखों लोगों का एक पूरा समुदाय, जो पीढ़ियों से कश्मीर के अतिरिक्त किसी घर को नहीं जानता था, समूल उखाड़ फेंका गया।
कश्मीरियों के लिए यह अनुभव संभवतः विभाजन के समय पाकिस्तान से आए शरणार्थियों या तालिबान द्वारा अफ़गानिस्तान से भगाए गए हिन्दुओं से कम नहीं था, पर यह इस दृष्टि से भिन्न था कि जहाँ पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से भागे हिन्दुओं को शरणार्थी मान कर मुआवज़ा दिया गया, कश्मीरियों को कभी शरणार्थी नहीं माना गया क्योंकि कश्मीर तो अभी भी भारत का "अटूट अंग" था। कश्मीरियों की वर्तमान पीढ़ी के लिए विस्थापन जीवन भर की वेदना बन गया। इन्हीं लाखों विस्थापितों में अग्निशेखर के परिवार ने भी जम्मू में आकर डेरा डाला। परन्तु व्यक्तिगत कठिनाइयों के बावजूद, पारिवारिक त्रासदियों के बावजूद, बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के उन्होंने अपने अधिकार के लिए लड़ने का निश्चय किया। तभी अपने कुछ युवा मित्रों के साथ वे राष्ट्रीय समाचार माध्यमों में पनुन कश्मीर (अपना कश्मीर) के कन्वीनर के रूप में अवतरित हुए। पनुन कश्मीर का नारा था, "असि छु तरुन कश्मीर" यानी, हमें (वापस अपने) कश्मीर जाना है। पिछले डेढ़ दशक में उन का संघर्ष कई मरहलों से गुज़रा, और मंज़िल अभी भी दूर है।
प्रमुख कृतियाँ
किसी भी समय (1992),
मुझसे छीन ली गई मेरी नदी (1996),
काल वृक्ष की छाया में (2002),
जवाहर टनल (2010)
सम्मान
अग्निशेखर का इस बीच साहित्य का भी मनन होता रहा। तीन कविता संग्रह छपे । एक कहानी पर फिल्म भी बनी, उस फिल्म में कैमियो रोल भी किया। हाल में उन्हें छत्तीसगढ़ सरकार के प्रतिष्ठित सूत्र सम्मान से पुरस्कृत किया गया। वे वेब पत्रिका कृत्या के सम्पादक मंडल में भी शामिल हैं। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से पुरस्कृत हैं।