भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आजु बधाई नंद कैं माई / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग जैतश्री आजु बधाई नंद कैं माई । ब्रज की न...)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}  
 
}}  
  
राग जैतश्री  
+
राग जैतश्री  
  
  
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
  
  
भावार्थ :--सखी! आज श्री नन्दजीके यहाँ बधाई बज रही है । व्रजकी सभी नारियाँआकर एकत्र हो गयी हैं । व्रजराज श्रीनन्दजीके सुन्दर भवनमें सभी सुखोंकानिधान पुत्र प्रकट हुआ है । श्रीयशोदाजीका पुत्र तो व्रजकी शोभा है । सखी,देखो! उसकी कान्ति ही कुछ और (अलौकिक) ही है । जहाँ लक्ष्मीजी-सीदेवियाँ मालिनी कहलाती हैं और बन्दनवारमें मालाएँ बाँधती घूमती हैं। आठोंसिद्धियाँ द्वारपर झाडू लगाती हैं । नवों निधियाँ द्वार-भितियोंपर स्वस्तिकके चित्र बनाती हैं । जब गोपियाँ घर-घरसे चलीं, तब अनुरागमयी वीथियोंमें भीड़ हो गयी उनके करोंमें सोनेके थाल ऐसे शोभा दे रहे थे मानो अनेकों चन्द्रमा कमलोंपर बैठ-बैठकर आ गये हों (ये गोपियाँ) प्रेमसे उमड़ी नदियोंके समान शोभा दे रही हैं, जो नन्दभवनरुपी समुद्रकी ओर दौड़ती जा रही हैं । भवनोंपरमणि जटित स्वर्णकलश जगमग कर रहे हैं । आज विश्वके समस्त अमंगल भाग गये ।गोप इस प्रकार घूम रहे हैं । मानो युद्धमें विजयी हो गये हों, सबकी मनोऽभिलाषा आज पूरी हो गयी है । श्रीनन्दजीने अत्यन्त आनन्दरससे आर्द्र होकर रत्नोंके सातपर्वत दान किये । जो गायें कामधेनुसे तनिक भी घटकर नहीं थींऐसी दो लाख गायें ब्राह्मणोंको दान कीं । जो आज नन्दजीके द्वारपर माँगने आगये,फिर कभी वे याचक नहीं कहे गये (उनसे इतना धन मिला कि फिर कभी माँगना नहीं पड़ा)सूरदासजी कहते है-मेरे घरके (निजी) स्वामी (श्रीनन्दजी) के जब पुत्र उत्पन्न हुआ, तब मैनें सब सुख पा लिया ।
+
भावार्थ :--सखी! आज श्री नन्द जी के यहाँ बधाई बज रही है । व्रज की सभी नारियाँ आकर एकत्र हो गयी हैं । व्रजराज श्रीनन्द जी के सुन्दर भवन में सभी सुखों का निधान पुत्र प्रकट हुआ है । श्रीयशोदा जी का पुत्र तो व्रज की शोभा है । सखी, देखो! उसकी कान्ति ही कुछ और (अलौकिक) ही है । जहाँ लक्ष्मी जी जैसी देवियाँ मालिनी कहलाती हैं और बन्दनवार में मालाएँ बाँधती घूमती हैं। आठों सिद्धियाँ द्वार पर झाडू लगाती हैं । नवों निधियाँ द्वार-भितियों पर स्वस्तिक के चित्र बनाती हैं । जब गोपियाँ घर-घर से चलीं, तब अनुरागमयी वीथियों में भीड़ हो गयी उनके करों में सोने के थाल ऐसे शोभा दे रहे थे मानो अनेकों चन्द्रमा कमलों पर बैठ-बैठकर आ गये हों (ये गोपियाँ) प्रेम से उमड़ी नदियों के समान शोभा दे रही हैं, जो नन्दभवनरुपी समुद्र की ओर दौड़ती जा रही हैं । भवनों पर मणि जटित स्वर्णकलश जगमग कर रहे हैं । आज विश्व के समस्त अमंगल भाग गये । गोप इस प्रकार घूम रहे हैं । मानो युद्ध में विजयी हो गये हों, सबकी मनोऽभिलाषा आज पूरी हो गयी है । श्रीनन्द जी ने अत्यन्त आनन्दरस से आर्द्र होकर रत्नों के सात पर्वत दान किये । जो गायें कामधेनु से तनिक भी घटकर नहीं थीं ऐसी दो लाख गायें ब्राह्मणों को दान कीं । जो आज नन्द जी के द्वारपर माँगने आ गये,फिर कभी वे याचक नहीं कहे गये (उनसे इतना धन मिला कि फिर कभी माँगना नहीं पड़ा) सूरदास जी कहते है-मेरे घर के (निजी) स्वामी (श्रीनन्द जी) के जब पुत्र उत्पन्न हुआ, तब मैनें सब सुख पा लिया ।

23:41, 5 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण

राग जैतश्री


आजु बधाई नंद कैं माई । ब्रज की नारि सकल जुरि आई ॥
सुंदर नंद महर कैं मंदिर । प्रगट्यौ पूत सकल सुख- कंदर ॥
जसुमति-ढोटा ब्रज की सोभा । देखि सखी, कछु औरैं गोभा ॥
लछिमी- सी जहँ मालिनि बोलै । बंदन-माला बाँधत डोलै ॥
द्वार बुहाराति फिरति अष्ट सिधि । कौरनि सथिया चीततिं नवनिधि ॥
गृह-गृह तैं गोपी गवनीं जब । रंग-गलिनि बिच भीर भई तब ॥
सुबरन-थार रहे हाथनि लसि । कमलनि चढ़ि आए मानौ ससि ॥
उमँगी -प्रेम-नदी-छबि पावै । नंद-सदन-सागर कौं धावैं ॥
कंचन-कलस जगमगैं नग के । भागे सकल अमंगल जग के ॥
डोलत ग्वाल मनौ रन जीते । भए सबनि के मन के चीते ॥
अति आनंद नंद रस भीने । परबत सात रतन के दीने ॥
कामधेनु तैं नैंकु न हीनी । द्वै लख धेनु द्विजनि कौं दीनी ॥
नंद-पौरि जे जाँचन आए । बहुरौ फिरि जाचक न कहाए ॥
घर के ठाकुर कैं सुत जायौ । सूरदास तब सब सुख पायौ ॥


भावार्थ :--सखी! आज श्री नन्द जी के यहाँ बधाई बज रही है । व्रज की सभी नारियाँ आकर एकत्र हो गयी हैं । व्रजराज श्रीनन्द जी के सुन्दर भवन में सभी सुखों का निधान पुत्र प्रकट हुआ है । श्रीयशोदा जी का पुत्र तो व्रज की शोभा है । सखी, देखो! उसकी कान्ति ही कुछ और (अलौकिक) ही है । जहाँ लक्ष्मी जी जैसी देवियाँ मालिनी कहलाती हैं और बन्दनवार में मालाएँ बाँधती घूमती हैं। आठों सिद्धियाँ द्वार पर झाडू लगाती हैं । नवों निधियाँ द्वार-भितियों पर स्वस्तिक के चित्र बनाती हैं । जब गोपियाँ घर-घर से चलीं, तब अनुरागमयी वीथियों में भीड़ हो गयी उनके करों में सोने के थाल ऐसे शोभा दे रहे थे मानो अनेकों चन्द्रमा कमलों पर बैठ-बैठकर आ गये हों (ये गोपियाँ) प्रेम से उमड़ी नदियों के समान शोभा दे रही हैं, जो नन्दभवनरुपी समुद्र की ओर दौड़ती जा रही हैं । भवनों पर मणि जटित स्वर्णकलश जगमग कर रहे हैं । आज विश्व के समस्त अमंगल भाग गये । गोप इस प्रकार घूम रहे हैं । मानो युद्ध में विजयी हो गये हों, सबकी मनोऽभिलाषा आज पूरी हो गयी है । श्रीनन्द जी ने अत्यन्त आनन्दरस से आर्द्र होकर रत्नों के सात पर्वत दान किये । जो गायें कामधेनु से तनिक भी घटकर नहीं थीं ऐसी दो लाख गायें ब्राह्मणों को दान कीं । जो आज नन्द जी के द्वारपर माँगने आ गये,फिर कभी वे याचक नहीं कहे गये (उनसे इतना धन मिला कि फिर कभी माँगना नहीं पड़ा) सूरदास जी कहते है-मेरे घर के (निजी) स्वामी (श्रीनन्द जी) के जब पुत्र उत्पन्न हुआ, तब मैनें सब सुख पा लिया ।