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"हरषे नंद टेरत महरि / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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श्रीनन्दजी आनन्दित होकर व्रजरानीको पुकार रहे हैं -` दहीका मटका एक ओर रख दो। झटपट आकर पुत्रका मुख देखो।' लेकिन श्रीयशोदाजी मथानी लिये दधि-मन्थन कर रही हैं, घरमें (दही मथनेके) घरघराहटका शब्द हो रहा है, स्थान-स्थानपर चहल-पहल हो रही है, इसलिए व्रजरानी श्रीनन्दजीकी पुकार कानों से सुन नहीं पातीं। लेकिन जब उन्होंने पुकार सुनी तो यह समझकर कि (कन्हाई पलने से) गिर पड़ा है, झपटकर दौड़ पड़ीं; किंतु श्रीनन्दजी का हँसी से खिला मुख देखकर उन्हें धैर्य हुआ और हृदयकी धड़कन रुकी । (पास आकर) श्यामसुन्दरको उलटे पड़े देख वहाँ छबिकी लहर बढ़ गयी ।सूरदासजी कहते हैं -प्रभु (सीधे होनेके लिये) कभी हाथोंको पलँगपर टेक रहे थे और कभीपाटीपर टेक रहे थे ।
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श्रीनन्द जी आनन्दित होकर व्रजरानी को पुकार रहे हैं -` दही का मटका एक ओर रख दो। झटपट आकर पुत्र का मुख देखो।' लेकिन श्रीयशोदा जी मथानी लिये दधि-मन्थन कर रही हैं, घर में (दही मथने के) घरघराहट का शब्द हो रहा है, स्थान-स्थान पर चहल-पहल हो रही है, इसलिए व्रजरानी श्रीनन्द जी की पुकार कानों से सुन नहीं पातीं। लेकिन जब उन्होंने पुकार सुनी तो यह समझकर कि (कन्हाई पलने से) गिर पड़ा है, झपटकर दौड़ पड़ीं; किंतु श्रीनन्द जी का हँसी से खिला मुख देखकर उन्हें धैर्य हुआ और हृदय की धड़कन रुकी । (पास आकर) श्यामसुन्दर को उलटे पड़े देख वहाँ छबि की लहर बढ़ गयी । सूरदास जी कहते हैं -प्रभु (सीधे होने के लिये) कभी हाथों को पलँग पर टेक रहे थे और कभी पाटी पर टेक रहे थे ।

01:46, 6 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण

राग रामकली

हरषे नंद टेरत महरि ।
आइ सुत-मुख देखि आतुर, डारि दै दधि-डहरि ॥
मथति दधि जसुमति मथानी, धुनि रही घर-घहरि ।
स्रवन सुनति न महर बातैं, जहाँ-तहँ गइ चहरि ॥
यह सुनत तब मातु धाई, गिरे जाने झहरि ।
हँसत नँद-मुख देखि धीरज तब कर्‌यौ ज्यौ ठहरि ॥
श्याम उलटे परे देखे, बढ़ी सोभा लहरि ।
सूर प्रभु कर सेज टेकत, कबहुँ टेकत ढहरि ॥


श्रीनन्द जी आनन्दित होकर व्रजरानी को पुकार रहे हैं -` दही का मटका एक ओर रख दो। झटपट आकर पुत्र का मुख देखो।' लेकिन श्रीयशोदा जी मथानी लिये दधि-मन्थन कर रही हैं, घर में (दही मथने के) घरघराहट का शब्द हो रहा है, स्थान-स्थान पर चहल-पहल हो रही है, इसलिए व्रजरानी श्रीनन्द जी की पुकार कानों से सुन नहीं पातीं। लेकिन जब उन्होंने पुकार सुनी तो यह समझकर कि (कन्हाई पलने से) गिर पड़ा है, झपटकर दौड़ पड़ीं; किंतु श्रीनन्द जी का हँसी से खिला मुख देखकर उन्हें धैर्य हुआ और हृदय की धड़कन रुकी । (पास आकर) श्यामसुन्दर को उलटे पड़े देख वहाँ छबि की लहर बढ़ गयी । सूरदास जी कहते हैं -प्रभु (सीधे होने के लिये) कभी हाथों को पलँग पर टेक रहे थे और कभी पाटी पर टेक रहे थे ।