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"माँ / अवनीश सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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− | घर की दुनिया | + | घर की दुनिया माँ होती है |
− | माँ होती है | + | |
खुशियों की क्रीम | खुशियों की क्रीम | ||
− | परसने को | + | परसने को |
− | + | दुःखों का दही बिलोती है | |
− | पूरे अनुभव एक तरफ हैं | + | पूरे अनुभव |
− | मइया | + | एक तरफ हैं |
− | के आगे | + | मइया के अनुभव |
− | जब भी उसके पास गए हम | + | के आगे |
− | लगा अँधेरे में | + | जब भी उसके |
− | हम जागे | + | पास गए हम |
+ | लगा अँधेरे में | ||
+ | हम जागे | ||
− | अपने मन की | + | अपने मन की |
− | परती भू | + | परती भू पर |
− | शबनम आशा की बोती है | + | शबनम आशा की बोती है |
− | घर की दुनिया माँ होती है | + | घर की दुनिया माँ होती है |
− | उसके हाथ का रूखा-सूखा- | + | उसके हाथ का |
− | भी हो जाता | + | रूखा-सूखा- |
− | है काजू-सा | + | भी हो जाता |
− | कम शब्दों में खुल जाती वह | + | है काजू-सा |
− | ज्यों संस्कृति की | + | कम शब्दों में |
− | हो मंजूषा | + | खुल जाती वह |
+ | ज्यों संस्कृति की | ||
+ | हो मंजूषा | ||
− | हाथ पिता का | + | हाथ पिता का |
− | खाली हो तो | + | खाली हो तो |
छिपी पोटली का मोती है | छिपी पोटली का मोती है | ||
− | घर की दुनिया माँ होती है | + | घर की दुनिया माँ होती है |
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13:45, 30 अक्टूबर 2014 के समय का अवतरण
घर की दुनिया माँ होती है
खुशियों की क्रीम
परसने को
दुःखों का दही बिलोती है
पूरे अनुभव
एक तरफ हैं
मइया के अनुभव
के आगे
जब भी उसके
पास गए हम
लगा अँधेरे में
हम जागे
अपने मन की
परती भू पर
शबनम आशा की बोती है
घर की दुनिया माँ होती है
उसके हाथ का
रूखा-सूखा-
भी हो जाता
है काजू-सा
कम शब्दों में
खुल जाती वह
ज्यों संस्कृति की
हो मंजूषा
हाथ पिता का
खाली हो तो
छिपी पोटली का मोती है
घर की दुनिया माँ होती है