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"गुज़रे दिनों / अनिरुद्ध सिन्हा" के अवतरणों में अंतर

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('अनिरुद्ध सिन्हा गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल क़िताब...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
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पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ
 
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माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़ दी
 
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इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!
 
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22:10, 20 मार्च 2012 के समय का अवतरण

गुज़रे दिनों की एक मुकम्मल क़िताब हूँ
पन्ने पलट के देखिए मैं इंकलाब हूँ

मुमकिन पतों के बाद भी पहुँचे न जो कभी
वैसे ख़तों का लौट के आया जवाब हूँ

ऐसा लगा कि झूठ भी सच बोलने लगा
पीकर न होश में रहे, मैं वो शराब हूँ

हद से कहीं हँसा न दें मेरी कहानियाँ
इक मुख़्तसर-सी रात का नन्हा-सा ख़्वाब हूँ

माली ने ही सलीके से टहनी मरोड़ दी
इल्ज़ाम सिर लगा मेरे, मैं तो गुलाब हूँ!