"घर की याद / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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मायके में बहिन आई, | मायके में बहिन आई, | ||
बहिन आई बाप के घर, | बहिन आई बाप के घर, | ||
− | हाय रे परिताप के घर ! | + | हाय रे परिताप के घर! |
आज का दिन दिन नहीं है, | आज का दिन दिन नहीं है, | ||
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का यहाँ तक भी पसारा, | का यहाँ तक भी पसारा, | ||
उसे लिखना नहीं आता, | उसे लिखना नहीं आता, | ||
− | जो कि उसका पत्र | + | जो कि उसका पत्र पाता। |
और पानी गिर रहा है, | और पानी गिर रहा है, | ||
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एक क्षण भी नहीं व्यापा, | एक क्षण भी नहीं व्यापा, | ||
जो अभी भी दौड़ जाएँ, | जो अभी भी दौड़ जाएँ, | ||
− | जो अभी भी | + | जो अभी भी खिलखिलाएँ, |
मौत के आगे न हिचकें, | मौत के आगे न हिचकें, | ||
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भुजा भाई प्यार बहिने, | भुजा भाई प्यार बहिने, | ||
खेलते या खड़े होंगे, | खेलते या खड़े होंगे, | ||
− | नज़र उनको पड़े | + | नज़र उनको पड़े होंगे। |
पिताजी जिनको बुढ़ापा, | पिताजी जिनको बुढ़ापा, | ||
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और माँ ने कहा होगा, | और माँ ने कहा होगा, | ||
दुःख कितना बहा होगा, | दुःख कितना बहा होगा, | ||
− | आँख में | + | आँख में किसलिए पानी, |
वहाँ अच्छा है भवानी, | वहाँ अच्छा है भवानी, | ||
− | वह तुम्हारा मन | + | वह तुम्हारा मन समझकर, |
− | और अपनापन | + | और अपनापन समझकर, |
गया है सो ठीक ही है, | गया है सो ठीक ही है, | ||
यह तुम्हारी लीक ही है, | यह तुम्हारी लीक ही है, | ||
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गिर रहा है आज पानी, | गिर रहा है आज पानी, | ||
− | याद | + | याद आता है भवानी, |
उसे थी बरसात प्यारी, | उसे थी बरसात प्यारी, | ||
− | रात-दिन की झड़ी झारी, | + | रात-दिन की झड़ी-झारी, |
खुले सिर नंगे बदन वह, | खुले सिर नंगे बदन वह, | ||
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मैं न रोऊँगा,—कहा होगा, | मैं न रोऊँगा,—कहा होगा, | ||
और फिर पानी बहा होगा, | और फिर पानी बहा होगा, | ||
− | दृश्य उसके | + | दृश्य उसके बाद का रे, |
पाँचवें की याद का रे, | पाँचवें की याद का रे, | ||
पंक्ति 148: | पंक्ति 149: | ||
ख़ूब भीतर छटपटाएँ, | ख़ूब भीतर छटपटाएँ, | ||
आज ऐसा कुछ हुआ होगा, | आज ऐसा कुछ हुआ होगा, | ||
− | आज सबका मन चुआ | + | आज सबका मन चुआ होगा। |
अभी पानी थम गया है, | अभी पानी थम गया है, | ||
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ढेर है उनका, न फाँकें, | ढेर है उनका, न फाँकें, | ||
− | जो कि | + | जो कि किरणें झुकें-झाँकें, |
लग रहे हैं वे मुझे यों, | लग रहे हैं वे मुझे यों, | ||
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों, | माँ कि आँगन लीप दे ज्यों, | ||
पंक्ति 163: | पंक्ति 164: | ||
दिशा के मन में समाई, | दिशा के मन में समाई, | ||
दश-दिशा चुपचाप है रे, | दश-दिशा चुपचाप है रे, | ||
− | स्वस्थ की छाप है रे, | + | स्वस्थ मन की छाप है रे, |
झाड़ आँखें बन्द करके, | झाड़ आँखें बन्द करके, | ||
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घाव उर के खोलता है, | घाव उर के खोलता है, | ||
आदमी के उर बिचारे, | आदमी के उर बिचारे, | ||
− | + | किसलिए इतनी तृषा रे, | |
तू ज़रा-सा दुःख कितना, | तू ज़रा-सा दुःख कितना, | ||
पंक्ति 236: | पंक्ति 237: | ||
कूदता हूँ, खेलता हूँ, | कूदता हूँ, खेलता हूँ, | ||
− | दुख डट कर | + | दुख डट कर झेलता हूँ, |
और कहना मस्त हूँ मैं, | और कहना मस्त हूँ मैं, | ||
यों न कहना अस्त हूँ मैं, | यों न कहना अस्त हूँ मैं, |
15:22, 22 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
आज पानी गिर रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है,
रात भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,
अब सवेरा हो गया है,
कब सवेरा हो गया है,
ठीक से मैंने न जाना,
बहुत सोकर सिर्फ़ माना—
क्योंकि बादल की अँधेरी,
है अभी तक भी घनेरी,
अभी तक चुपचाप है सब,
रातवाली छाप है सब,
गिर रहा पानी झरा-झर,
हिल रहे पत्ते हरा-हर,
बह रही है हवा सर-सर,
काँपते हैं प्राण थर-थर,
बहुत पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,
घर कि मुझसे दूर है जो,
घर खुशी का पूर है जो,
घर कि घर में चार भाई,
मायके में बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर,
हाय रे परिताप के घर!
आज का दिन दिन नहीं है,
क्योंकि इसका छिन नहीं है,
एक छिन सौ बरस है रे,
हाय कैसा तरस है रे,
घर कि घर में सब जुड़े है,
सब कि इतने कब जुड़े हैं,
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,
और माँ बिन-पढ़ी मेरी,
दुःख में वह गढ़ी मेरी
माँ कि जिसकी गोद में सिर,
रख लिया तो दुख नहीं फिर,
माँ कि जिसकी स्नेह-धारा,
का यहाँ तक भी पसारा,
उसे लिखना नहीं आता,
जो कि उसका पत्र पाता।
और पानी गिर रहा है,
घर चतुर्दिक घिर रहा है,
पिताजी भोले बहादुर,
वज्र-भुज नवनीत-सा उर,
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी भी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिलखिलाएँ,
मौत के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता,
काम में झंझा लरजता,
आज गीता पाठ करके,
दंड दो सौ साठ करके,
खूब मुगदर हिला लेकर,
मूठ उनकी मिला लेकर,
जब कि नीचे आए होंगे,
नैन जल से छाए होंगे,
हाय, पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिने,
खेलते या खड़े होंगे,
नज़र उनको पड़े होंगे।
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
रो पड़े होंगे बराबर,
पाँचवे का नाम लेकर,
पाँचवाँ हूँ मैं अभागा,
जिसे सोने पर सुहागा,
पिता जी कहते रहें है,
प्यार में बहते रहे हैं,
आज उनके स्वर्ण बेटे,
लगे होंगे उन्हें हेटे,
क्योंकि मैं उन पर सुहागा
बँधा बैठा हूँ अभागा,
और माँ ने कहा होगा,
दुःख कितना बहा होगा,
आँख में किसलिए पानी,
वहाँ अच्छा है भवानी,
वह तुम्हारा मन समझकर,
और अपनापन समझकर,
गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,
पाँव जो पीछे हटाता,
कोख को मेरी लजाता,
इस तरह होओ न कच्चे,
रो पड़ेंगे और बच्चे,
पिताजी ने कहा होगा,
हाय, कितना सहा होगा,
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,
धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,
गिर रहा है आज पानी,
याद आता है भवानी,
उसे थी बरसात प्यारी,
रात-दिन की झड़ी-झारी,
खुले सिर नंगे बदन वह,
घूमता-फिरता मगन वह,
बड़े बाड़े में कि जाता,
बीज लौकी का लगाता,
तुझे बतलाता कि बेला
ने फलानी फूल झेला,
तू कि उसके साथ जाती,
आज इससे याद आती,
मैं न रोऊँगा,—कहा होगा,
और फिर पानी बहा होगा,
दृश्य उसके बाद का रे,
पाँचवें की याद का रे,
भाई पागल, बहिन पागल,
और अम्मा ठीक बादल,
और भौजी और सरला,
सहज पानी,सहज तरला,
शर्म से रो भी न पाएँ,
ख़ूब भीतर छटपटाएँ,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,
आज सबका मन चुआ होगा।
अभी पानी थम गया है,
मन निहायत नम गया है,
एक से बादल जमे हैं,
गगन-भर फैले रमे हैं,
ढेर है उनका, न फाँकें,
जो कि किरणें झुकें-झाँकें,
लग रहे हैं वे मुझे यों,
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,
गगन-आँगन की लुनाई,
दिशा के मन में समाई,
दश-दिशा चुपचाप है रे,
स्वस्थ मन की छाप है रे,
झाड़ आँखें बन्द करके,
साँस सुस्थिर मंद करके,
हिले बिन चुपके खड़े हैं,
क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,
एक पंछी बोलता है,
घाव उर के खोलता है,
आदमी के उर बिचारे,
किसलिए इतनी तृषा रे,
तू ज़रा-सा दुःख कितना,
सह सकेगा क्या कि इतना,
और इस पर बस नहीं है,
बस बिना कुछ रस नहीं है,
हवा आई उड़ चला तू,
लहर आई मुड़ चला तू,
लगा झटका टूट बैठा,
गिरा नीचे फूट बैठा,
तू कि प्रिय से दूर होकर,
बह चला रे पूर होकर,
दुःख भर क्या पास तेरे,
अश्रु सिंचित हास तेरे !
पिताजी का वेश मुझको,
दे रहा है क्लेश मुझको,
देह एक पहाड़ जैसे,
मन की बड़ का झाड़ जैसे,
एक पत्ता टूट जाए,
बस कि धारा फूट जाए,
एक हल्की चोट लग ले,
दूध की नद्दी उमग ले,
एक टहनी कम न होले,
कम कहाँ कि ख़म न होले,
ध्यान कितना फ़िक्र कितनी,
डाल जितनी जड़ें उतनी !
इस तरह क हाल उनका,
इस तरह का ख़याल उनका,
हवा उनको धीर देना,
यह नहीं जी चीर देना,
हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवे को वे न तरसें,
मैं मज़े में हूँ सही है,
घर नहीं हूँ बस यही है,
किन्तु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,
किन्तु उनसे यह न कहना,
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूँ,
उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ,
काम करता हूँ कि कहना,
नाम करता हूँ कि कहना,
चाहते है लोग, कहना,
मत करो कुछ शोक कहना,
और कहना मस्त हूँ मैं,
कातने में व्यस्त हूँ मैं,
वज़न सत्तर सेर मेरा,
और भोजन ढेर मेरा,
कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दुख डट कर झेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,
हाय रे, ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,
कह न देना जागता हूँ,
आदमी से भागता हूँ,
कह न देना मौन हूँ मैं,
ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं,
देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,
हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसे,
पाँचवें को वे न तरसें ।