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हँसता है मानव
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आई थी वो खेलने
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हरा-सा साया नहीं
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धूप  से जली
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दम तोड़ गई री!
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धरा  बिलख रही
  
 
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09:02, 6 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

सज-धज के
आकाश से उतरी
वसन्त-परी
हुई लहू-लुहान
शख़्मी, बेदम
कंक्रीट के जंगल
आ के जो गिरी
हँसता है मानव
पंख नोच के
वहशी बन चुका
करे प्रहार
प्रदूषण-दानव
साँस ही रुकी
आई थी वो खेलने
डूब ही गई
खौलते सागर में
जीवन-तरी
नृशंस, हत्यारा है
महा-नगर
भटकती ही फिरी
लोहा, सीमेण्ट
पत्थरों ने दुत्कारा
होश खो, गिरी
दो बूँद पानी नहीं
ममता नहीं
हरा-सा साया नहीं

धूप से जली
भूखी-प्यासी टकरा
रेत के टीलों
दम तोड़ गई री!
धरा बिलख रही

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