"कृष्ण दर्शन / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राधा जल बिहरति सखियनि सँग । ग्रीव-प्रजंत नी...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=सूरदास | |रचनाकार=सूरदास | ||
− | }} | + | }} {{KKCatKavita}} |
− | + | {{KKAnthologyKrushn}} | |
− | + | ||
राधा जल बिहरति सखियनि सँग । | राधा जल बिहरति सखियनि सँग । | ||
पंक्ति 12: | पंक्ति 11: | ||
मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥ | मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥ | ||
− | |||
आईं निकसि जानु कटि लौं सब, अँजुरिनि तैं लै लै जल डारतिं । | आईं निकसि जानु कटि लौं सब, अँजुरिनि तैं लै लै जल डारतिं । | ||
पंक्ति 64: | पंक्ति 62: | ||
राधा चलहु भवनहिं जाहि । | राधा चलहु भवनहिं जाहि । | ||
− | |||
कबहिं की हम जमुन आई, कहहिं अरु पछिताहिं ॥ | कबहिं की हम जमुन आई, कहहिं अरु पछिताहिं ॥ | ||
पंक्ति 73: | पंक्ति 70: | ||
हम चलीं घर तुमहुँ आवहु, सोच भयौ मन माहिं | हम चलीं घर तुमहुँ आवहु, सोच भयौ मन माहिं | ||
+ | |||
सूर राधा सहित गोपी, चलीं ब्रज-समुहाहिं ॥5॥ | सूर राधा सहित गोपी, चलीं ब्रज-समुहाहिं ॥5॥ | ||
पंक्ति 83: | पंक्ति 81: | ||
की हम तुमसौ कहति रहीं ज्यौं, साँच कहौ की तैसे है ॥ | की हम तुमसौ कहति रहीं ज्यौं, साँच कहौ की तैसे है ॥ | ||
+ | |||
नटवर-वेष काछनी काछे, अंगनि रति-पति-सै से हैं । | नटवर-वेष काछनी काछे, अंगनि रति-पति-सै से हैं । | ||
19:56, 18 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
राधा जल बिहरति सखियनि सँग ।
ग्रीव-प्रजंत नीर मै ठाढ़ी, छिरकति जल अपनैं अपनैं रंग ॥
मुख भरि नीर परसपर डारतिं, सोभा अतिहिं अनूप बढ़ी तब ।
मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥
आईं निकसि जानु कटि लौं सब, अँजुरिनि तैं लै लै जल डारतिं ।
मानहु सूर कनक-बल्ली जुरि अमृत-बूँद पवन-मिस झारतिं ॥1॥
जमुना-जल बिहरति ब्रज-नारी ।
तट ठाढ़े देखत नँद-नंदन, मधुरि मुरलि कर धारी ॥
मोर मुकुट, स्रवननि मनि कुंडल, जलज-माल उर भ्राजत ।
सुंदर सुभग स्याम तन नव घन, बिच बग पाँति बिराजत ॥
उर वनमाल सुमन बहु भाँतिनि, सेत, लाल, सित,पीत ।
मनहु सुरसरी तट बैठे सुक, बरन बरन तजि भीत ॥
पीतांबर कटि तट छुद्रावलि, बाजति परम रसाल ।
सूरदास मनु कनकभूमि ढिग, बोलत रुचिर मराल ॥2॥
चितवनि रोकै हूँ न रही ।
स्याम सुंदर सिंधु-सनमुख, सरित उमंगि बही ॥
प्रेम-सलिल-प्रवाह भँवरनि, मिलि न कबहुँ लही ।
लोभ लहर कटाच्छ, घूँघट-पट-करार ढही ॥
थके पल पथ, नाव धीरज परति नहिंन गही ।
मिली सूर सुभाव स्यामहिं, फेरहू न चही ॥3॥
हमहिं कह्यौ हौ स्याम दिखावहु ।
देखहु दरस नैन भरि नीकैं, पुनि-पुनि दरस न पावहु ॥
बहुत लालसा करति रही तुम, वे तुम कारन आए ।
पूरी साध मिली तुम उनकौं, यातैं हमहिं भुलाए ॥
नीकैं सगुन आजु ह्याँ आईं, भयौ तुम्हारी काज ।
सुनहु सूर हमकौं कछु देहौ, तुमहिं मिले ब्रजराज ॥4॥
राधा चलहु भवनहिं जाहि ।
कबहिं की हम जमुन आई, कहहिं अरु पछिताहिं ॥
कियौ दरसन स्याम कौ तुम, चलौगी की नाहिं ।
बहुरि मिलिहौ चीन्हि राखहु, कहत, सब मुसुकाहिं ॥
हम चलीं घर तुमहुँ आवहु, सोच भयौ मन माहिं
सूर राधा सहित गोपी, चलीं ब्रज-समुहाहिं ॥5॥
कहि राधा हरि कैसे हैं ।
तेरै मन भाए की नाहीं, की सुंदर, की नैसे हें ॥
की पुनि हमहिं दुराव करौगी, की कैहौ वै जैसे हैं ।
की हम तुमसौ कहति रहीं ज्यौं, साँच कहौ की तैसे है ॥
नटवर-वेष काछनी काछे, अंगनि रति-पति-सै से हैं ।
सूर स्याम तुम नीकैं देखे, हम जानत हरि ऐसे हैं ॥6॥
स्याम सखि नीकैं देखे नाहिं ।
चितवन ही लोचन भरि आए, बार-बार पछिताहिं ॥
कैसेहुँ करि इकटक मैं राखति, नैंकहिं मैं अकुलाहिं ।
निमिष मनौ छबि पर रखवारे , तातैं अतिहिं डराहिं ॥
कहा करै इनकौ कह दूषन,इन अपनी सी कीन्ही ।
सूर स्याम-छबि पर मन अटक्यौ, उन सोभा लीन्ही ॥7॥