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राधा जल बिहरति सखियनि सँग ।
 
राधा जल बिहरति सखियनि सँग ।
  
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मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥
 
मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥
 
  
 
आईं निकसि जानु कटि लौं सब, अँजुरिनि तैं लै लै जल डारतिं ।
 
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राधा चलहु भवनहिं जाहि ।
 
राधा चलहु भवनहिं जाहि ।
 
  
 
कबहिं की हम जमुन आई, कहहिं अरु पछिताहिं ॥
 
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हम चलीं घर तुमहुँ आवहु, सोच भयौ मन माहिं  
 
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सूर राधा सहित गोपी, चलीं ब्रज-समुहाहिं ॥5॥
 
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की हम तुमसौ कहति रहीं ज्यौं, साँच कहौ की तैसे है ॥
 
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19:56, 18 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

राधा जल बिहरति सखियनि सँग ।

ग्रीव-प्रजंत नीर मै ठाढ़ी, छिरकति जल अपनैं अपनैं रंग ॥

मुख भरि नीर परसपर डारतिं, सोभा अतिहिं अनूप बढ़ी तब ।

मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥

आईं निकसि जानु कटि लौं सब, अँजुरिनि तैं लै लै जल डारतिं ।

मानहु सूर कनक-बल्ली जुरि अमृत-बूँद पवन-मिस झारतिं ॥1॥


जमुना-जल बिहरति ब्रज-नारी ।

तट ठाढ़े देखत नँद-नंदन, मधुरि मुरलि कर धारी ॥

मोर मुकुट, स्रवननि मनि कुंडल, जलज-माल उर भ्राजत ।

सुंदर सुभग स्याम तन नव घन, बिच बग पाँति बिराजत ॥

उर वनमाल सुमन बहु भाँतिनि, सेत, लाल, सित,पीत ।

मनहु सुरसरी तट बैठे सुक, बरन बरन तजि भीत ॥

पीतांबर कटि तट छुद्रावलि, बाजति परम रसाल ।

सूरदास मनु कनकभूमि ढिग, बोलत रुचिर मराल ॥2॥


चितवनि रोकै हूँ न रही ।

स्याम सुंदर सिंधु-सनमुख, सरित उमंगि बही ॥

प्रेम-सलिल-प्रवाह भँवरनि, मिलि न कबहुँ लही ।

लोभ लहर कटाच्छ, घूँघट-पट-करार ढही ॥

थके पल पथ, नाव धीरज परति नहिंन गही ।

मिली सूर सुभाव स्यामहिं, फेरहू न चही ॥3॥


हमहिं कह्यौ हौ स्याम दिखावहु ।

देखहु दरस नैन भरि नीकैं, पुनि-पुनि दरस न पावहु ॥

बहुत लालसा करति रही तुम, वे तुम कारन आए ।

पूरी साध मिली तुम उनकौं, यातैं हमहिं भुलाए ॥

नीकैं सगुन आजु ह्याँ आईं, भयौ तुम्हारी काज ।

सुनहु सूर हमकौं कछु देहौ, तुमहिं मिले ब्रजराज ॥4॥


राधा चलहु भवनहिं जाहि ।

कबहिं की हम जमुन आई, कहहिं अरु पछिताहिं ॥

कियौ दरसन स्याम कौ तुम, चलौगी की नाहिं ।

बहुरि मिलिहौ चीन्हि राखहु, कहत, सब मुसुकाहिं ॥

हम चलीं घर तुमहुँ आवहु, सोच भयौ मन माहिं

सूर राधा सहित गोपी, चलीं ब्रज-समुहाहिं ॥5॥


कहि राधा हरि कैसे हैं ।

तेरै मन भाए की नाहीं, की सुंदर, की नैसे हें ॥

की पुनि हमहिं दुराव करौगी, की कैहौ वै जैसे हैं ।

की हम तुमसौ कहति रहीं ज्यौं, साँच कहौ की तैसे है ॥

नटवर-वेष काछनी काछे, अंगनि रति-पति-सै से हैं ।

सूर स्याम तुम नीकैं देखे, हम जानत हरि ऐसे हैं ॥6॥


स्याम सखि नीकैं देखे नाहिं ।

चितवन ही लोचन भरि आए, बार-बार पछिताहिं ॥

कैसेहुँ करि इकटक मैं राखति, नैंकहिं मैं अकुलाहिं ।

निमिष मनौ छबि पर रखवारे , तातैं अतिहिं डराहिं ॥

कहा करै इनकौ कह दूषन,इन अपनी सी कीन्ही ।

सूर स्याम-छबि पर मन अटक्यौ, उन सोभा लीन्ही ॥7॥