"ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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− | सुनि री सुंदरि, दीनबंधु बिनु कौन मिताई मानै॥ | + | सुनि री सुंदरि, दीनबंधु बिनु कौन मिताई मानै॥ |
− | कहं हौं कृपन कुचील कुदरसन, कहं जदुनाथ गुसाईं। | + | कहं हौं कृपन कुचील कुदरसन, कहं जदुनाथ गुसाईं। |
− | भैंट्यौ हृदय लगाइ प्रेम सों उठि अग्रज की नाईं॥ | + | भैंट्यौ हृदय लगाइ प्रेम सों उठि अग्रज की नाईं॥ |
− | निज आसन बैठारि परम रुचि, निजकर चरन पखारे। | + | निज आसन बैठारि परम रुचि, निजकर चरन पखारे। |
− | पूंछि कुसल स्यामघन सुंदर सब संकोच निबारे॥ | + | पूंछि कुसल स्यामघन सुंदर सब संकोच निबारे॥ |
− | लीन्हें छोरि चीर तें चाउर कर गहि मुख में मेले। | + | लीन्हें छोरि चीर तें चाउर कर गहि मुख में मेले। |
− | पूरब कथा सुनाइ सूर प्रभु गुरु-गृह बसे अकेले॥< | + | पूरब कथा सुनाइ सूर प्रभु गुरु-गृह बसे अकेले॥ |
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भावार्थ :- `निज कर चरन पखारे,' अपने हाथ से मेरे पैर धोये। इस प्रसंग पर कवि | भावार्थ :- `निज कर चरन पखारे,' अपने हाथ से मेरे पैर धोये। इस प्रसंग पर कवि | ||
नरोत्तमदास का बड़ा ही सुंदर सवैया है :- | नरोत्तमदास का बड़ा ही सुंदर सवैया है :- | ||
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"कैसे बिहाल बेवाइंन सों भये कंटक-जाल गड़े पग जोये। | "कैसे बिहाल बेवाइंन सों भये कंटक-जाल गड़े पग जोये। | ||
हाय महादुख पाये सखा तुम, आये इतै न कितै दिन खोये॥ | हाय महादुख पाये सखा तुम, आये इतै न कितै दिन खोये॥ | ||
देखि सुदामा की दीन दसा करुना करि कैं करुनाकर रोये। | देखि सुदामा की दीन दसा करुना करि कैं करुनाकर रोये। | ||
पानी परात कौ हाथ छुयौ नहिं नैनन के जल सों पग धोये॥" | पानी परात कौ हाथ छुयौ नहिं नैनन के जल सों पग धोये॥" | ||
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`लीन्हें....मेले' सुदामा की पत्नी ने एक फटे पुराने चिथड़े में श्रीकृष्ण के लिए | `लीन्हें....मेले' सुदामा की पत्नी ने एक फटे पुराने चिथड़े में श्रीकृष्ण के लिए | ||
भेंट-स्वरूप थोड़े-से चावल बांध दिए थे। श्रीकृष्ण ने सुदामा से पूछा, "क्यों भैया | भेंट-स्वरूप थोड़े-से चावल बांध दिए थे। श्रीकृष्ण ने सुदामा से पूछा, "क्यों भैया | ||
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पकड़कर वह खींच ही ली और खोलकर वे कच्चे चावल मुट्ठी भर-भर बड़े प्रेम से | पकड़कर वह खींच ही ली और खोलकर वे कच्चे चावल मुट्ठी भर-भर बड़े प्रेम से | ||
चबाने लगे। | चबाने लगे। | ||
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शब्दार्थ :- मिताई =मित्रता। कृपन =दीन, गरीब। कुचील = मैले कपड़े पहनने वाला। | शब्दार्थ :- मिताई =मित्रता। कृपन =दीन, गरीब। कुचील = मैले कपड़े पहनने वाला। | ||
कुदरसन =कुरूप। सब संकोच निवारे = निःसंकोच होकर। चीर = वस्त्र। मेले = डाल दिये | कुदरसन =कुरूप। सब संकोच निवारे = निःसंकोच होकर। चीर = वस्त्र। मेले = डाल दिये | ||
पूरब कथा = बाल्यकाल की बातें। | पूरब कथा = बाल्यकाल की बातें। |
19:21, 19 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
राग बिलावल
ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै।
सुनि री सुंदरि, दीनबंधु बिनु कौन मिताई मानै॥
कहं हौं कृपन कुचील कुदरसन, कहं जदुनाथ गुसाईं।
भैंट्यौ हृदय लगाइ प्रेम सों उठि अग्रज की नाईं॥
निज आसन बैठारि परम रुचि, निजकर चरन पखारे।
पूंछि कुसल स्यामघन सुंदर सब संकोच निबारे॥
लीन्हें छोरि चीर तें चाउर कर गहि मुख में मेले।
पूरब कथा सुनाइ सूर प्रभु गुरु-गृह बसे अकेले॥
भावार्थ :- `निज कर चरन पखारे,' अपने हाथ से मेरे पैर धोये। इस प्रसंग पर कवि
नरोत्तमदास का बड़ा ही सुंदर सवैया है :-
"कैसे बिहाल बेवाइंन सों भये कंटक-जाल गड़े पग जोये।
हाय महादुख पाये सखा तुम, आये इतै न कितै दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा करुना करि कैं करुनाकर रोये।
पानी परात कौ हाथ छुयौ नहिं नैनन के जल सों पग धोये॥"
`लीन्हें....मेले' सुदामा की पत्नी ने एक फटे पुराने चिथड़े में श्रीकृष्ण के लिए भेंट-स्वरूप थोड़े-से चावल बांध दिए थे। श्रीकृष्ण ने सुदामा से पूछा, "क्यों भैया मेरे लिए भाभी ने कुछ दिया है या नहीं ?" बेचारे ब्राह्मण से लज्जा और संकोच के मारे कुछ बोलते न बना। वह फटी पोटली बगल में और जोर से दबा ली। कृष्ण ने पकड़कर वह खींच ही ली और खोलकर वे कच्चे चावल मुट्ठी भर-भर बड़े प्रेम से चबाने लगे।
शब्दार्थ :- मिताई =मित्रता। कृपन =दीन, गरीब। कुचील = मैले कपड़े पहनने वाला। कुदरसन =कुरूप। सब संकोच निवारे = निःसंकोच होकर। चीर = वस्त्र। मेले = डाल दिये पूरब कथा = बाल्यकाल की बातें।