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"पीपल / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर

 
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पात के प्रसार को<br>
 
पात के प्रसार को<br>
 
कोमल कोमल परस से छूता हुआ|<br>
 
कोमल कोमल परस से छूता हुआ|<br>
पहली कविता
 
 
 
 
चोट जभी लगती है
 
तभी हँस देता हूँ
 
देखनेवालों की आँखें
 
उस हालत में
 
देखा ही करती हैं
 
आँसू नहीं लाती हैं
 
 
और
 
जब पीड़ा बढ़ जाती है
 
बेहिसाब
 
तब
 
जाने-अनजाने लोगों में
 
जाता हूँ
 
उनका हो जाता हूँ
 
हँसता हँसाता हूँ।
 
 
दूसरी कविता
 
 
 
(1)
 
 
आज मैं अकेला हूँ
 
अकेले रहा नहीं जाता।
 
 
(2)
 
 
जीवन मिला है यह
 
रतन मिला है यह
 
धूल में
 
कि
 
फूल में
 
मिला है
 
तो
 
मिला है यह
 
मोल-तोल इसका
 
अकेले कहा नहीं जाता
 
 
(3)
 
 
सुख आये दुख आये
 
दिन आये रात आये
 
फूल में
 
कि
 
धूल में
 
आये
 
जैसे
 
जब आये
 
सुख दुख एक भी
 
अकेले सहा नहीं जाता
 
 
(4)
 
 
चरण हैं चलता हूँ
 
चलता हूँ चलता हूँ
 
फूल में
 
कि
 
धूल में
 
चलता
 
मन
 
चलता हूँ
 
ओखी धार दिन की
 
अकेले बहा नहीं जाता।
 

19:56, 21 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण


मिट्टी की ओदाई ने
पीपल के पात की हरीतिमा को
पूरी तरह से सोख लिया था
मूल रूप में नकशा
पात का,बाकी था,छोटी बड़ी
नसें,
वृंत्त की पकड़ लगाव दिखा रही थी
पात का मानचित्र फैला था
दाईं तर्जनी के नखपृष्ठ की
चोट दे दे कर मैंने पात को परिमार्जित कर दिया
पीपल के पात में
आदिम रूप अब न था
मूल रूप रक्षित था
मूल को विकास देने वाले हाथ
आंखों से ओझल थे
पात का कंकाल भई
मनोरम था,उसका फैलाव
क्रीड़ा-स्थल था समीरण का
जो मंदगामी था
पात के प्रसार को
कोमल कोमल परस से छूता हुआ|