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"कवि / वीरेन डंगवाल" के अवतरणों में अंतर

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और गुठली जैसा  
 
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छिपा शरद का उष्म ताप  
 
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एक कवि और कर ही क्या सकता है  
 
एक कवि और कर ही क्या सकता है  
 
सही बने रहने की कोशिश के सिवा ।  
 
सही बने रहने की कोशिश के सिवा ।  
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२.
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मैं हूँ रेत की अस्फुट फुसफुसाहट
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बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज़
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मैं पपीते का बीज हूँ
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अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों को
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अपने भीतर छुपाए
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नाजुक ख़याल की तरह
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हज़ार जुल्मों से सताए मेरे लोगो !
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मैं तुम्हारी बद्दुआ हूँ
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सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
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तुम्हारी लालसा
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गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं
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मुझे छाँटो
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तुम्हें भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक दिन
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उस लालटेन की तरह
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जिसकी रोशनी में
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मन लगाकर पढ़ रहा है
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तुम्हारा बेटा ।
 
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02:16, 3 अगस्त 2019 के समय का अवतरण

१.
 
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का उष्म ताप
मैं हूँ वसन्त में सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूंगफली को छाँट कर
चबाता फ़ुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ

उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ

इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज है
एक फ़ेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप हो कर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता रहूँगा ही
हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर

एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा ।

२.

मैं हूँ रेत की अस्फुट फुसफुसाहट
बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज़

मैं पपीते का बीज हूँ
अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों को
अपने भीतर छुपाए
नाजुक ख़याल की तरह

हज़ार जुल्मों से सताए मेरे लोगो !
मैं तुम्हारी बद्दुआ हूँ
सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा

गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं
मुझे छाँटो
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक दिन
उस लालटेन की तरह
जिसकी रोशनी में
मन लगाकर पढ़ रहा है
तुम्हारा बेटा ।