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"अदम्य / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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भौतिकता और चेतना के दो घटवाली जीवन-काँवर,  
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धरती तल में उगी घास
लेकर आता है जीव, श्वास की त्रिगुण डोर में अटका कर,  
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यों ही अनायास,  
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पलती रही धरती के क्रोड़ में,
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मटीले आँचल में .
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हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
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मौसमी फूल नहीं हूँ
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कि,यत्न से रोपी जाऊँ, पोसी जाऊँ!
  
हर बार नये ही निर्धारण, काँवरिये की यात्रा के पथ
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हर तरह से, रोकना चाहा, .
चक्रिल राहों पर भरमाता, देता फिर बरस-बरस भाँवर .
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कि हट जाऊँ मैं,
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धरती माँ का आँचल पाट कर ईंटों से
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कि कहीं जगह न पाऊँ .
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पर कौन रोक पाया मुझे?
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जहाँ जगह मिली
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सँधों में जमें माटी कणों से
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फिर-फिर फूट आई.
  
घट में धारण कर लिया आस्था-विश्वासों का संचित जल
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सिर उठा चली आऊँगी,
अर्पित कर महाकाल को फिर, चल देता अपने नियतस्थल!
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जहाँ तहाँ, यहाँ -वहाँ,
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आहत भले होऊँ
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हत नहीं होती,
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झेल कर आघात,  
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जीना सीख लिया है,
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उपेक्षाओँ के बीच
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अदम्य हूँ मैं!

19:02, 21 मई 2013 के समय का अवतरण

 
धरती तल में उगी घास
यों ही अनायास,
पलती रही धरती के क्रोड़ में,
मटीले आँचल में .
हाथ-पाँव फैलाती आसपास .
मौसमी फूल नहीं हूँ
कि,यत्न से रोपी जाऊँ, पोसी जाऊँ!

हर तरह से, रोकना चाहा, .
कि हट जाऊँ मैं,
धरती माँ का आँचल पाट कर ईंटों से
कि कहीं जगह न पाऊँ .
पर कौन रोक पाया मुझे?
जहाँ जगह मिली
सँधों में जमें माटी कणों से
फिर-फिर फूट आई.

सिर उठा चली आऊँगी,
जहाँ तहाँ, यहाँ -वहाँ,
आहत भले होऊँ
हत नहीं होती,
झेल कर आघात,
जीना सीख लिया है,
उपेक्षाओँ के बीच
अदम्य हूँ मैं!