"चिह्न / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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इन अनन्त पथ के कितने ही, छोड़ छोड़ विश्राम-स्थान, | इन अनन्त पथ के कितने ही, छोड़ छोड़ विश्राम-स्थान, | ||
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आये थे हम विकल देखने, नव वसन्त का सुन्दर मान। | आये थे हम विकल देखने, नव वसन्त का सुन्दर मान। | ||
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मानवता के निर्जन बन मे जड़ थी प्रकृति शान्त था व्योम, | मानवता के निर्जन बन मे जड़ थी प्रकृति शान्त था व्योम, | ||
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तपती थी मध्याह्न-किरण-सी प्राणों की गति लोम विलोम। | तपती थी मध्याह्न-किरण-सी प्राणों की गति लोम विलोम। | ||
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आशा थी परिहास कर रही स्मृति का होता था उपहास, | आशा थी परिहास कर रही स्मृति का होता था उपहास, | ||
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दूर क्षितिज मे जाकर सोता था जीवन का नव उल्लास। | दूर क्षितिज मे जाकर सोता था जीवन का नव उल्लास। | ||
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द्रुतगति से था दौड़ लगाता, चक्कर खाता पवन हताश, | द्रुतगति से था दौड़ लगाता, चक्कर खाता पवन हताश, | ||
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विह्वल-सी थी दीन वेदना, मुँह खोले मलीन अवकाश। | विह्वल-सी थी दीन वेदना, मुँह खोले मलीन अवकाश। | ||
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हृदय एक निःश्वास फेंककर खोज रहा था प्रेम-निकेत, | हृदय एक निःश्वास फेंककर खोज रहा था प्रेम-निकेत, | ||
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जीर्ण कांड़ वृक्षों के हँसकर रूखा-सा करते संकेत। | जीर्ण कांड़ वृक्षों के हँसकर रूखा-सा करते संकेत। | ||
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बिखरते चुकी थी अम्बरतल में सौरभ की शुचितम सुख धूल, | बिखरते चुकी थी अम्बरतल में सौरभ की शुचितम सुख धूल, | ||
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पृथ्वी पर थे विकल लोटते शुष्क पत्र मुरझाये फूल। | पृथ्वी पर थे विकल लोटते शुष्क पत्र मुरझाये फूल। | ||
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गोधूली की धूसर छवि ने चित्रपटी ली सकल समेट. | गोधूली की धूसर छवि ने चित्रपटी ली सकल समेट. | ||
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निर्मल चिति का दीप जलाकर छोड़ चला यह अपनी भेंट। | निर्मल चिति का दीप जलाकर छोड़ चला यह अपनी भेंट। | ||
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मधुर आँच से गला बहावेगा शैलों से निर्झर लोक, | मधुर आँच से गला बहावेगा शैलों से निर्झर लोक, | ||
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शान्ति सुरसुरी की शीतल जल लहरी को देता आलोक। | शान्ति सुरसुरी की शीतल जल लहरी को देता आलोक। | ||
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नव यौवन की प्रेम कल्पना और विरह का तीव्र विनोद, | नव यौवन की प्रेम कल्पना और विरह का तीव्र विनोद, | ||
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स्वर्ण रत्न की तरल कांति, शिशु का स्मित या माता की गोद। | स्वर्ण रत्न की तरल कांति, शिशु का स्मित या माता की गोद। | ||
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इसके तल के तम अंचल में इनकी लहरों का लघु भान, | इसके तल के तम अंचल में इनकी लहरों का लघु भान, | ||
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मधुर हँसी से अस्त व्यस्त हो, हो जायेगी, फिर अवसान॥ | मधुर हँसी से अस्त व्यस्त हो, हो जायेगी, फिर अवसान॥ | ||
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00:22, 20 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
इन अनन्त पथ के कितने ही, छोड़ छोड़ विश्राम-स्थान,
आये थे हम विकल देखने, नव वसन्त का सुन्दर मान।
मानवता के निर्जन बन मे जड़ थी प्रकृति शान्त था व्योम,
तपती थी मध्याह्न-किरण-सी प्राणों की गति लोम विलोम।
आशा थी परिहास कर रही स्मृति का होता था उपहास,
दूर क्षितिज मे जाकर सोता था जीवन का नव उल्लास।
द्रुतगति से था दौड़ लगाता, चक्कर खाता पवन हताश,
विह्वल-सी थी दीन वेदना, मुँह खोले मलीन अवकाश।
हृदय एक निःश्वास फेंककर खोज रहा था प्रेम-निकेत,
जीर्ण कांड़ वृक्षों के हँसकर रूखा-सा करते संकेत।
बिखरते चुकी थी अम्बरतल में सौरभ की शुचितम सुख धूल,
पृथ्वी पर थे विकल लोटते शुष्क पत्र मुरझाये फूल।
गोधूली की धूसर छवि ने चित्रपटी ली सकल समेट.
निर्मल चिति का दीप जलाकर छोड़ चला यह अपनी भेंट।
मधुर आँच से गला बहावेगा शैलों से निर्झर लोक,
शान्ति सुरसुरी की शीतल जल लहरी को देता आलोक।
नव यौवन की प्रेम कल्पना और विरह का तीव्र विनोद,
स्वर्ण रत्न की तरल कांति, शिशु का स्मित या माता की गोद।
इसके तल के तम अंचल में इनकी लहरों का लघु भान,
मधुर हँसी से अस्त व्यस्त हो, हो जायेगी, फिर अवसान॥