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<poem>
चिह्नों भरी दीवारों से पूछा मैंने
 
किसने तुम्हें छुआ कब-कब
 
बतलाओ तो
 
वे बदरंग, छिली-खुरचीं-सी
 
केवल इतना कह पाईं
 
हम तो
 
पूरी पत्थर-भर हैं
 
जड़ से
 
जन से
 
छिजी हुईं
 
कौन, कहाँ, कब, कैसे
 
दे जाता है
 
अपने दाग हमें
 
त्यौहारों पर कभी
 
दिखावों की घड़ियों पर कभी-कभी
 
पोत-पात, ढक-ढाँप-ढूँप झट
 
खूब उल्लसित होता है
 
ऐसे जड़-पत्थर ढाँचों से
 
आप सुरक्षा लेता है
 
और ठुँकी कीलों पर टाँगे
 
कैलेंडर की तारीख़ें
 
बदली-बदली देख समझता
 
इन पर इतने दिन बदले।
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