भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आत्मा का चिर-धन / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत | |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | क्या मेरी आत्मा का चिर-धन ? | ||
+ | मैं रहता नित उन्मन, उन्मन ! | ||
− | + | :प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, | |
− | + | :त्रिण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, | |
− | + | :सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर; | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | निज सुख से ही चिर चंचल-मन, | |
− | + | मैं हुँ परतिपल उन्मन, उन्मन । | |
− | + | :मैं प्रेमी उच्चाद्रशों का, | |
− | + | :संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शो का, | |
− | + | :जीवन के हर्ष-विमर्शों का: | |
− | + | लगता अपुर्ण मानव जीवन, | |
− | + | मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन ! | |
− | + | :जग-जीवन में उल्लास मुझे, | |
− | + | :नव-आशा, नव अभिलाष मुझे, | |
− | + | :ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे; | |
− | + | चाहिए विश्व को नवजीवन, | |
− | + | मैं आकुल रे उन्मन, उन्मन । | |
+ | </poem> |
00:39, 13 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
क्या मेरी आत्मा का चिर-धन ?
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !
प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,
त्रिण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,
सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;
निज सुख से ही चिर चंचल-मन,
मैं हुँ परतिपल उन्मन, उन्मन ।
मैं प्रेमी उच्चाद्रशों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शो का,
जीवन के हर्ष-विमर्शों का:
लगता अपुर्ण मानव जीवन,
मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन !
जग-जीवन में उल्लास मुझे,
नव-आशा, नव अभिलाष मुझे,
ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;
चाहिए विश्व को नवजीवन,
मैं आकुल रे उन्मन, उन्मन ।